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अब / बोधिसत्व

बहुत घिरे हैं बादल
कोना अन्तरा महागगन का ढँका हुआ है
उमड़े हैं नील-धवल दल
धरती का मुख आशा सुख से टँका हुआ है।

बहुत पानी बरसेगा
बहुत हरियाली छाएगी,
इस घनघोर वृष्टि में
पिछली बरखा धुल जाएगी।
 
सब नया और
सब सरस सुगढ़ सजल होगा
अषाढ़ हो या माघ
अन्त: कुछ शस्य सरल होगा।