अब कहाँ वे दिन,
जो कभी काटे न कटते थे
तुम्हारे बिन I
थी जहाँ कलकल
वहाँ अब बर्फ़ उग आई,
इन्तज़ारों की नदी में
छा गई काई;
प्यास की धरती हुई
बेवक्त बैरागिन I
मुक्त छुअनों का
तरल अहसास गुमसुम है,
आज अपना ही पता
हमसे हुआ गुम है;
एक सीधी बात में हैं
सैकड़ों `लेकिन` I
छांव वाले वे सफ़र
जब-जब बुलाते थे,
याद आते थे, हँसाते थे
रुलाते थे;
धुप में कुम्हला गई
सम्वेदना कमसिन I