कितना कुछ छूट गया पीछे!
वे पोखर, ताल, नदी, झरने
घास-पात, आम के बगीचे!
अब तक भी
बाट जोहती होंगी
हिरनी की दो
उदास आंखें
मुझे घेरने को
अकुलाती हैं
बांहों-सी फैलीं
वे शाखें
मां-सी वह नम्र हरित छाया
मन को है छाती से भींचे!
डालों पर
झूलने लगे होंगे
टूटे-से घोंसले
बया के
सहमे खरगोश ने
कहे होंगे
याचना-भरे वचन
दया के
भीगी पांखें सिसक रही होंगी
पथरीले रिश्तों के नीचे!
अब भी
आशीष दे रहा होगा
वह बूढ़ा झुका हुआ
बरगद चिड़ियों की चिहुंक
गुंजती होगी
भोर की हवाओं में
अनहद
दस्तक से चौंकते अभी तक
वे गूंगे पल आंखें भींचे!