अब न आउँगा तुम्हारे द्वार।
जब तुम्हारी ही हृदय में याद हरदम
लोचनों में जब सदा बैठे स्वयं तुम
फ़िर अरे क्या देव, दानव क्या, मनुज क्या
मैं जिसे पूजूँ जहाँ भी तुम वहीं साकार
किसलिए आऊँ तुम्हारे द्वार?
क्या कहा- सपना वहाँ साकार होगा
मुक्ति और अमरत्व पर अधिकार होगा
किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूँ
है जहाँ करती अमरता मर्त्य का श्रृंगार
क्या करूँ आकर तुम्हारे द्वार?
तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन
मत डुबाओ हास में ये अश्रु के कण
क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं
प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार
मत कहो- आओ हमारे द्वार।
आज मुझ में तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय
अब न अपने बीच कोई भेद संशय
क्योंकि तिल-तिल कर गला दी प्राण मैंने
थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार
व्यर्थ फ़िर आना तुम्हारे द्वार।
दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल
क्योंकि मेरी साधना ने पल निमिष चल
कर दिए केन्द्रित सदा को ताप बल से
विश्व में तुम, और तुम में विश्व भर का प्यार
हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार।