अब तुम न गाओ सुमुखि, छबि के प्रणय के गान
आज जब चीतकार से हैं त्रस्त जग के प्राण
- छा गए जो विषमता के मेघ अम्बर में
- दैन्य का तम-धूम जो भर गया घर-घर में
हो रहा जग से विभा का लोक अन्तर्धान
- घुमड़ते हैं वे उधर बाहर बवण्डर-से
- कल्पना के महल सब हो चले खण्डहर-से
किन्तु अब भी कर रहीं तुम नयन-शर-सन्धान
- वह उधर रुंध गए हैं सब कण्ठ जन-जन के
- तुम इधर गाती अभी तक गीत साजन के
पहन कर अपना बासन्ती स्वप्न-सा परिधान
- अब न यों मन को हवा के साथ बहने दो
- आज अपने रूप का आह्वान रहने दो
उठ रहा है हृदय में विक्षुब्ध-सा तूफ़ान
- मत भरो सखि, आज अपने मोह का प्याला
- आज जलनी चाहिए विद्रोह की ज्वाला
आज होने दो तनिक उत्सर्ग का सामान
- चुक रहे हैं प्यार के अरमान अब सारे
- दीखते हैं सामने सब ओर अंगारे
हम सिपाही, हो हमें बलिदान का वरदान
- कण्टकों के मार्ग पर अविराम चलना है
- एक ही विश्वास से चुपचाप जलना है
करें हम-तुम साथ आओ इस गरल का पान
आज जब चीत्कार से हैं त्रस्त जग के प्राण ।
(1941 में आगरा में रचित)