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अब न तुम गाओ / नेमिचन्द्र जैन

अब तुम न गाओ सुमुखि, छबि के प्रणय के गान

आज जब चीतकार से हैं त्रस्त जग के प्राण

छा गए जो विषमता के मेघ अम्बर में
दैन्य का तम-धूम जो भर गया घर-घर में

हो रहा जग से विभा का लोक अन्तर्धान

घुमड़ते हैं वे उधर बाहर बवण्डर-से
कल्पना के महल सब हो चले खण्डहर-से

किन्तु अब भी कर रहीं तुम नयन-शर-सन्धान

वह उधर रुंध गए हैं सब कण्ठ जन-जन के
तुम इधर गाती अभी तक गीत साजन के

पहन कर अपना बासन्ती स्वप्न-सा परिधान

अब न यों मन को हवा के साथ बहने दो
आज अपने रूप का आह्वान रहने दो

उठ रहा है हृदय में विक्षुब्ध-सा तूफ़ान

मत भरो सखि, आज अपने मोह का प्याला
आज जलनी चाहिए विद्रोह की ज्वाला

आज होने दो तनिक उत्सर्ग का सामान

चुक रहे हैं प्यार के अरमान अब सारे
दीखते हैं सामने सब ओर अंगारे

हम सिपाही, हो हमें बलिदान का वरदान

कण्टकों के मार्ग पर अविराम चलना है
एक ही विश्वास से चुपचाप जलना है

करें हम-तुम साथ आओ इस गरल का पान

आज जब चीत्कार से हैं त्रस्त जग के प्राण ।


(1941 में आगरा में रचित)