राग धनाश्री
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।
भरम भर्यौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥
तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥
भावार्थ :- संसार के प्रवृति मार्ग पर भटकते-भटकते जीव अन्त में प्रभु से कहता है, तुम्हारी आज्ञा से बहुत नाच मैंने नाच लिया। अब इस प्रवृति से मुझे छुटकारा दे दो, मेरा सारा अज्ञान दूर कर दो। वह नृत्य कैसा? काम-क्रोध के वस्त्र पहने। विषय की माला पहनी। अज्ञान के घुंघरू बजे। परनिन्दा का मधुर गान गाया। भ्रमभरे मन ने मृदंग का काम दिया। तृष्णा ने स्वर भरा और ताल तद्रुप दिये। माया का फेंटा कस लिया था। माथे पर लोभ का तिलक लगा लिया था। तुम्हें रिझाने के लिए न जाने कितने स्वांग रचे। कहां-कहां नाचना पड़ा, किस-किस योनि में चक्कर लगाना पड़ा। न तो स्थान का स्मरण है, न समय का। किसी तरह अब तो रीझ जाओ, नंदनंदन।
शब्दार्थ :- चोलना = नाचने के समय का घेरदार पहनावा।
पखावज =मृदंग। विषय = कुवासना। फैंटा =कमरबंद। अविद्या =अज्ञान।