अधरों ने जब वाणी पाई
प्रथम शब्द में तू ही बोली
हंसती होगी कभी -कभी तुम
सुन के मेरी बोली भोली
प्रथम लेखनी पर आ बैठीं
थाम उँगली अक्षर साधे
आढ़ी-तिरछी रेखाओं में
कभी थे पूरे कभी थे आधे
अब तक भी मैं ऐसी मैया
प्रतिदिन ढूँढूँ सबल सहारा
अभिनन्दन हे मात तुम्हारा।
भाव-कल्पना रूप तेरे ही
गीत रचूँ या कथा सुनाऊँ
अद्भुत तेरी ज्ञान निधि से
अक्षत मोती माल बनाऊं
ज्ञानी गाएँ महिमा तेरी
सुन-सुन मन गर्वित हो जाता
मधुर तेरे शब्दों का जादू
रोम -रोम हर्षित कर जाता
देस रहें, परदेस रहें हम
निज भाषा में ही मान हमारा।
नमन तुम्हें भारती हमारा।
अभिनन्दन हे मात तुम्हारा
नील गगन के छोर-छोर से
कण-कण से और पोर-पोर से
गूँज रहा मृदु गान यह प्यारा
अभिनंदन भारती तुम्हारा।