कब तक करना होगा अभिनय मुझे स्त्री संस्कारी का?
कब तक रहना होगा भय में निरंकुश व्यभिचारी का?
स्वंतत्रता समानता किताबी बातें तो पढ़ी बहुत अब,
निर्देश अमल है करना कब तक पुरुष धर्माधिकारी का?
कब तक मेरी अकाक्षाओं पर लगेगी रोक आदेश की?
कब तक मेरा स्वावलम्ब है वस्तु स्वप्निल परीदेश की?
मेरे परिधान वेश चयन पर सभ्यता की ध्वजा चढ़ाए,
अभिव्यक्ति की भी कहाँ आज़ादी याद रहे परिवेश की।
रंगमंच की बना कठपुतली मुकुट विभिन्न किरदार के,
कभी देवी कभी पतिता पहन मुखौटे दिन में हज़ार के।
वास्तविक मेरे पात्र त्याग को नाम देकर हित परोपकार,
इस साँचे कभी उस साँचे मैं ढलती रही मन मार के।