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अभिलषित / महेन्द्र भटनागर

दिन भर

धरती पर लेटी पसरी
रेशम जैसी
चिकनी-चिकनी दूब से,
ऑंगन में उतरी
खुली-खुली
फैली बिखरी
हेमा-हेमा धूप से,
यह अलबेला
एकाकी
जम कर खेला !
दिन भर खेला !

दिन भर
ताजे टटके गदराए
फूलों की छाँह में,
हरिआए - हरिआए
शूलों की बाँह में,
उनकी मादक-मादक गंधों में
अटका-भटका;
ऊला-भूला !
शर्मीली-शर्मीली भोली
कलियों की,
लम्बी-लम्बी पतली-पतली
फलियों की,
डालों-डालों झूला !
लिपट-लिपट कर
टहनी-टहनी पत्ती-पत्ती झूला !
दिन भर झूला !

दिन भर
सुन्दर रंगों छापों वाली साड़ी पहने
उड़ती मुग्धा तितली पर,
वासन्ती रंग-रँगी
मदमाती प्रेम-प्रगल्भा
प्रौढ़ा सरसों पर,
जी भर राँचा,
संग-संग खेतों-खेतों नाचा !
दिन भर नाचा !

दिन भर
इमली के / अमरूदों के पेड़ों पर
चोरी-चोरी डोला,
झरबेरी के कानों में
जा-जा,
चुपके-चुपके
जाने क्या-क्या बोला !
दिन भर डोला !