अभिलाषा
मैं पपीहा बनकर कहीं उड आज जो पाता गगन में,
बैठता मैं उस झरोख्ेा पर प्रिया पावन सदन में।
कूकता मैं ‘पी कहॉं’ विधुरा कहा,ॅं हे प्रिये!
पढ रही हो पत्र प्रिय का स्नेह दीपक को लियेे।
सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद से 1981 में मुद्रित
अभिलाषा
मैं पपीहा बनकर कहीं उड आज जो पाता गगन में,
बैठता मैं उस झरोख्ेा पर प्रिया पावन सदन में।
कूकता मैं ‘पी कहॉं’ विधुरा कहा,ॅं हे प्रिये!
पढ रही हो पत्र प्रिय का स्नेह दीपक को लियेे।
सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद से 1981 में मुद्रित