मैं, सदा से चाहती थी
निर्भर होना, तुम पर
तुम्हारा संग, देता था संबल
तुम्हारी बाँहों में हमेशा
पाती थी सुरक्षित स्वयं को
लेकिन, प्रेमवश किये
इस समर्पण को
समझा तुमने दुर्बलता
और समय के साथ
साबित कर दी मेरी कमज़ोरी
कि मैं, थी सदा ही आश्रित
तुम पर,
तुम्हारे तन और धन पर !
सुनो,
तुम्हारे पौरुष से
कहीं नहीं कम
स्त्रीत्व मेरा
दैहिक निर्बलता
दोष नहीं, अस्त्र बना
मैंने पार की सब बाधायें
समय की गति के साथ
सार्थक कार्य मेरे
देंगे अभिव्यंजना
शुभ संकल्प को मेरे
सुनो, अब भी, चाहती हूँ कि तुम
बने रहो संरक्षक मेरे
लेकिन, पंख रखते हुए
परवाज़ अपनी न भूलूँगी
उन्मुक्त गगन में अब मैं
हे पुरुष, ख़ूब उडूँगी !