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अभिशप्त क़र्ज़ / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

वो जगाती थी आँखों को
अलस्सुबह
हो रही होती नींद तैयार
जब उसके लिए
आँखों की मूंदने की क्रिया
सक्रिय हो जाती खुली आँखों में

उसके सोने से, उसे लगता है
सोते हुए लोग उठ जाएंगे
वो फँसा लेती उनके सपने
आँखों के बीच
जगा लेती अपनी आँखों को
चौड़ा करके

बन्द होने से
उसकी दो पलकों के
हज़ारों खिड़कियों के पल्ले
खुल जाते उसकी तरफ
और उसका
उँगलियों से लिपटा पल्लू
तेज-तेज मसलता आँखों को

लाल पड़ गई आँखों
मान लिया गया है कि
असर है किसी धुँए का
किसी साए का
गणित का सिद्धांत
लागू है तुम पर!

मैंने कहा था उससे
उतार फेंको एक दिन
नींद का मोह
जैसे उतार फेंकती हो
शरीर से उबटन
तुमने पलट कर कब देखा है
कुछ हिस्सा शरीर का
उसमें भी तो झड़ा रखा है

न जाने वह
कैसी स्त्री है
नींद का उजला पक्ष
अंधेरों में सम्भाल कर रखती है
वो जब भी भरपूर सोएगी
सुबह का सूरज पश्चिम से
निकलेगा
उस रोज़ पृथ्वी का अभिमान
बर्फ़ की तरह
पिघलेगा
ऐसा होगा क्या?
आशंका से देख रही हैं
विपरीत दिशाओं में खड़ी
स्त्री और उसकी नींद
दोनों रोतीं हैं
ज़ोर-ज़ोर से

अचानक उनका
खिलखिला कर हँस पड़ना

कोरा पागलपन है
और
स्त्री की नींद के
अकाल का आँकलन है
जो
अभिशप्त कर्ज़ है
हर सभ्यता पर!