अभी और चलना है.....
दरवाजा खुलते ही बोले-
मुझसे सड़क शुरू होती है,
आहट की थर-थर-थर पर ही
लीलटांस पाँखें फर फरती
उड़े दूरियाँ गाती
चूना पुती हुई काली पर
पाँवों को मण्डना है.....
कहते से बैठे हैं आगे.....
चार, पाँच, कई सात रास्ते,
दस-दस बाँसों ऊँचे-ऊचे
खड़े हुए हैं पेड़ थाम कर
छायाओं के छाते,
घाटी इधर, उधर डूंगर वह
जंगल बहुत घना है.....
झुका हुआ आकाश जहाँ पर
उस अछोर को ही छूना हो,
कोरे से इस कागज ऊपर
अपने होने के रंगों को
भर देना चाहा हो
तब तो आखर के निनाद को
सात सुरों सधना है.....
अभी और चलना है.....