“कैसे हो?”
आत्मीय लहजे में कौन पूछता है अब !
कंठारूद्ध सुपरिचित यह स्वर
उस उदास झोपड़ का ही था
घोर अभावों मे भी जिसने
हँसना कभी नहीं छोड़ा था !
जिसके आंगन की मिट्टी पर
लुढ़क लुढ़क कर चलना सीखा
जिसके आश्रय में ही पलकर
कहने को हम बड़े हुए थे!
प्रति उत्तर में बोल न फूटे
हिचक हिचक कर जी भर रोया
छेड़ गया हो जैसे कोई
भीतर की सोयी कोमलता !
आओ साथी कंठ लगा लो
लोकगीत की तान सुना दो !
एकपेरिया पर दौड़ लगा लें
पोखर-पाखी-नहर-निर्जनों से
हम फिर से होड़ लगा लें !
अभी स्थगित कर दें अपने
बड़े-बड़े आयतन के सपने
मिल बैठें सारे लंगोटिये
चिर लंबित सब गप्प लड़ा लें !