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अमानुषिक / महेन्द्र भटनागर

आज फिर

खंडित हुआ विश्वास,
आज फिर
धूमिल हुई
अभिनव ज़िन्दगी की आस !

ढह गये
साकार होती कल्पनाओं के महल !
बह गये
अतितीव्र अतिक्रामक
उफनते ज्वार में,
युग-युग सहेजे
भव्य-जीवन-धारणाओं के अचल !

आज छाये; फिर
प्रलय-घन,
सूर्य- संस्कृति-सभ्यता का
फिर ग्रहण-आहत हुआ,
षड्यंत्रों-घिरा
यह देश मेरा
आज फिर
मर्माहत हुआ !

फैली गंध नगर-नगर
विषैली प्राणहर बारूद की,
विस्फोटकों से
पट गयी धरती,
सुरक्षा-दुर्ग टूटे
और हर प्राचीर
क्षत-विक्षत हुई !

जन्मा जातिगत विद्वेष,
फैला धर्मगत विद्वेष,
भूँका प्रांत-भाषा द्वेष,
गँदला हो गया परिवेश !
सर्वत्र दानव वेश !
घुट रही साँसें
प्रदूषित वायु,
विष-घुला जल
छटपटाती आयु !