कब की ढह चुकी इमारत की
दीवार का छोटा-सा टुकड़ा
जो निर्जन में स्मृतियों का
रंग गाढ़ा करता रहता है
उस खँडहर की दीवार पर अब भी
बचा हुआ है एक चित्र
यह चित्र बनाया था उस घर के
सबसे छोटे बच्चे ने
उस घर में तब पच्चीस पीढ़ियाँ
एक साथ ही रहती थीं
दुनिया के सारे लोगों की
छवियाँ इस चित्र में अंकित हैं
जो हैं जो होकर बीत चुके
जो आगे आने वाले हैं
सम्भव हैं जितने भी स्वरूप
सारे स्वभाव सब भाव
चित्र में भरे हुए
हैं रंग बहुत कोमल-कोमल
रेखाएँ अब हो चलीं क्षीण
आकार बहुत गहराई में
ईंटों के भीतर डूबे-से
ताना-बाना है बहुत घना
संरचना भी उलझी-उलझी
पर जो भी चित्र देख पाता
अपने को पाता है उसमें
यद्यपि धूमिल हो चला समय
और अन्धकार गहराया है
फिर भी जगती रहती जगमग
चित्रित दीपक की अमर ज्योति
तूफान चले या झड़ी लगे
वह दीया आज तक बुझा नहीं
सबके आभ्यन्तर का प्रकाश
उस दीपक से ही आता है
शिशु चित्रकार की रचना में
पर्वत, नदियाँ है, झीलें हैं
झीलों में बहते पद्मपुष्प
यात्राएँ हैं गान्धार-त्रिगर्त-
तुरुष्क देश के आगे के भी देशों की
एक टूटा-सा झूले का पुल है
नीचे गहरी घाटी है
उस पुल पर चल कर इड़ा
पिंगला के घर आती-जाती थी
घाटी में ध्वनि के और प्रकाश के
फूल खिला करते थे तब
लेकिन पर्तों पर चढ़ी पर्त
चित्रों के ऊपर बने चित्र
अब आग लगी है घाटी में
जिसमें जल भी जल उठता है
एक सर्प आ घुसा उपवन में
जब नींद में सोयी थी दुनिया
यह उसके विष की ज्वाला है
जिसमें संसार जल रहा है
विषुवत् रेखा पर पसरा वह
पूरी पृथ्वी को जकड़े है
कुछ और दृश्य अब दिखते हैं
दुपहर को चित्र बदलता है
पाताल से लेकर स्वर्गलोक तक
ऊँचा पेड़ खजूर का है
जिसमें दुपहर के एक बजे
अक्षय अमृतफल फलता है,
(दीवार से हट कर एक खजूर
का पेड़ चित्र के बाहर भी)
चित्रोपम फल को
आदम-हव्वा ने पाया था कालेज में
ये एमए में वो बीए में
अब ये इतिहास पढ़ाता है
और वो इतिहास बनाती है
जब दुपहर का सन्नाटा हो
या रात बिछी हो पूनम की
इन दोनों को तुम
चित्र के बाहर चलते-फिरते पाओगे
झरबेरी और मकोय बीनते
खँडहरों में छुप-छुपकर
सूरज ढलान पर है लेकिन
अब भी सन्ध्या है बहुत दूर
और उधर चित्र में चार बजे
कोने में हलचल होती है
मुद्राएँ रूप बदलती हैं
कुछ भीड़-सी जुटती दिखती है
आकार चपल हो उठते हैं
आवाजें आने लगती हैं
बाजार चित्र में जगता है
जो लूटता है और लुटता भी
दाना-पानी रोटी-चुग्गा
आलू-बैगन पेड़ा-बर्फी
कपड़ा-लत्ता डागदर-बैद
तेली-कुम्हार नाई-दर्जी
ये सब बाजार के बाशिन्दे
इनसे ही आमदरफ्त यहाँ
है भाषा की टकसाल यहाँ
सब बात समझते हैं सबकी
पर चित्र को ये मंजूर कहाँ
चीजें हों इतनी सरल यहाँ
सो छै बजने के पहले ही
बाजार का रंग बदलता है
रंगों में बिजली बहती है
तब बिकने लगतीं चित्र-लिखे
बाजार में किस्मों की किस्में
यदि मिल जाए गाहक अच्छा
तो चित्र स्वयं बिक जाता है
कब की ढह चुकी इमारत भी
उस चित्र में है महफूज अभी
जिसको खरीद सकते हो तुम
चाहो तो ले लो वहीं कर्ज
और किश्तों में भुगतान करो
आत्मा को गिरवी रखने से
अब काम नहीं बनता भाई
इस चित्र-विचित्र बाजार में लेकिन
भाषा सबकी अलग-अलग
यूँ तो जब चित्र बोलता हो
तो भाषा का क्या काम वहाँ
सौदा, सौदागर, लेन-देन
विनिमय चलता रहता अबाध
वस्तुएँ स्वयं स्वायत्त रूप
धर कर अब आती-जाती हैं
वे अपना ग्राहक और मूल्य
सब कुछ खुद ही तय करती हैं
अब कोई नहीं दूकानदार
और खरीदार भी कोई नहीं
इस चित्र की दुनिया के बाहर
आ पाना माना नामुमकिन
पर चित्र-लिखे को बदल सको
तो कोशिश में कुछ हर्ज नहीं
इस चित्र का चित्र भी चित्र में है
जिसमें अंकित है चित्रकार-
वो ऊपर बाईं तरफ एक
धुँधला-धुँधला पुतला जो है
उसकी छवि में तुम खोजो तो
पा सकते हो अपनी ही छवि
तुम बन सकते हो चित्रकार
जब गिर जाएगी यह दीवार
ईंटें भी होंगी चूर-चूर
तब भी यह चित्र दिखेगा सबको
समय पटल पर लिखा हुआ
यह अन्तरिक्ष में तारामंडल
बन कर होगा उदय अस्त
पीढ़ी-दर-पीढ़ी आँखों में
सपनों में पाकर पुनर्जन्म
यह चित्र सृष्टि के पोर-पोर में
आत्मसात् हो जाएगा
तुम बन सकते हो चित्रकार
इस अमिट चित्र के
एक बार।