छा रहा शंका-तिमिर फिर
शीत-युद्ध सभीत वातावरण में !
और लगता है —
लिपटते जा रहे पन्नग चरण में !
कान बजते फूत्कारों के स्वरों से,
शांति घायल
उड़ गयी सारे घरों से !
है प्रपीड़ित भग्न जन-मानस
परस्पर की कलह से !
स्नेह-सूखे नेत्र निर्मम,
क्रुद्ध-मुद्रा मूक हर-दम !
घिर रहीं संस्कृति-क्षितिज पर
ध्वंस संकेतक घटाएँ,
जल रही हैं फिर मनुज की
भोग-रत सूखी शिराएँ !
उग रहा फिर
स्वार्थ का जंगल
अमंगल,
देखकर जिसको नहीं खिलते कभी
फल-फूल जीवन के,
नहीं देते सुनायी
गीत सावन के !
नहीं बहते कभी
जिसमें मधुर निर्झर,
नहीं देते सुनायी
मुक्त विहगों के सरस स्वर !
इसलिये अमिताभ !
युग की दृष्टि तुम पर
है लिये विश्वास दृढ़तर;
सौम्य-मुख की हर किरन को
आज दो फिर हर नयन को !
यह नयी पीढ़ी
तुम्हारी मूक-सेवा साधना से
बलवती हो !
यह नयी पीढ़ी
तुम्हारे भव्यतम उत्सर्ग की शुभ-भावना से
बलवती हो !