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अमित धर्मसिंह / परिचय

अमित धर्मसिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के ज़िला मुजफ्फरनगर के कस्बा ककरौली में 18 जून 1986 को हुआ। इनके पिता धर्मसिंह राजमिस्त्री और माता कुसुम देवी गृहिणी हैं। इन्हें चार वर्ष की उम्र में ककरौली के घोल्लू उर्फ किरणपाल के स्कूल में दाखिला दिलवाया गया। जहाँ से इन्होंने नर्सरी और फर्स्ट की कक्षाएँ पास की। उसके बाद इनका परिवार ककरौली से गाँव वहलना (जो इनका ननिहाल है) में आ गया। यहाँ फिर से इन्हें कक्षा एक में दाखिला दिलवाया गया। कालू के घेर में यह स्कूल चला करता था। इसमें हो रही पढ़ाई से परिवार संतुष्ट नहीं हुआ, लिहाजा अगले वर्ष तेज तर्रार मास्टरनी बुढ़िया भेंजी (शकुन्तला) के स्कूल में भेजा गया जहाँ से इन्होंने कक्षा तीन पास की और इसके बाद एक दूसरे स्कूल (डी एस बालियान प्रधानाचार्य के कहने पर उन्हीं के बाल भारती स्कूल) में दाखिला दिलवाया गया। इस स्कूल में इन्होंने फिर कक्षा तीन से ही पढ़ाई शुरू की और कक्षा पांच तक की पढ़ाई यहीं की। ये पढ़ने में होशियार थे। कक्षा पांच में ही इन्होंने कक्षा नौ और कक्षा दस की अंग्रेज़ी ट्रांसलेशन की दो किताबें न्यू स्टाइल और न्यू लाइट स्व अध्ययन से ही सीख ली थी। पांचवी के गणित में आने वाले भिन्नों वाले सवाल भी कक्षा में इन्होंने सबसे पहले हल करना सीख लिये थे। इन सवालों में कक्षा आठ तक के बच्चे गच्चा खा जाते थे। परिणाम यह हुआ कि स्कूल में रेसिस के बाद कक्षा पांच से आठ तक के बच्चों को भिन्नो के सवाल और अंग्रेज़ी के टेंस बोर्ड पर करवाने के लिए बालियान सर इन्हीं को कहते और ये सभी कक्षाओं को सम्बंधित कार्य बोर्ड पर करवाते। कक्षा पांच में ही इन्होंने कविता कि पहली तुकबंदी की। जिसको इन्होंने स्कूल की कॉपी में लिखा और कॉपी का पेज खराब करने के कारण स्कूल के एक अध्यापक द्वारा पीटे गए। यद्यपि इनकी प्रतिभा से स्कूल के सभी टीचर प्रसन्न रहते थे और अपने साथ विविध पर्यटन स्थलों पर भी घुमाकर लाते थे। कक्षा पांच में ही इन्हें शहर से गाँव में आने वालेेे डॉक्टर प्रवीण कुमार के पास काम सीखने भेजा गया। कक्षा पांच पास होने के बाद इनका मन गाँव वहलना के ही भगीरथ स्कूल में पढ़ने का हुआ तो घरवालों ने इनका दाखिला भगीरथ जूनियर हाई स्कूल में करवा दिया। बाल भारती जूनियर हाई स्कूल के प्रधानाचार्य ने इनके पिता से बहुत कहा कि मिस्त्री अमित को हमारे ही स्कूल में पढ़ाओ, मैं उसे कक्षा आठ तक फ्री पढ़ाने को तैयार हूँ। मगर उनकी अरुचि के चलते यह संभव न हुआ और इनकी कक्षा आठ तक की शिक्षा भगीरथ जूनियर हाई स्कूल में ही हुई। यहाँ इनकी कक्षा में पहले से दो अमित और थे जिन्होंने इनसे पहले दाखिला लिया था। इसलिए कक्षा में उन्हें फर्स्ट, सेकंड और इन्हें थर्ड कहा जाता। बावजूद इसके हर साल स्कूल में सर्वाधिक नम्बर इन्हीं के आते। इस तरह ये थर्ड होते हुए भी जूनियर हाईस्कूल तक फर्स्ट बने रहे। इसी दौरान इन्होंने छह सौ रुपए माह रोलिंग मिल में गाटर पर रात को काम शुरू किया और कई महीने मेहनत करके पंद्रह सौ रुपए इकट्ठे किए। इन रूपयों से इन्होंने साढ़े चौदह सौ की नीलम साइकिल खरीदी। जिससे कि आगे की पढ़ाई के लिए साइकिल कॉलेज आने-जाने में काम आ सके। इनकी एम.ए. तक की शिक्षा और दूसरे सभी कार्य इसी साइकिल पर हुए।

सन् उन्नीस सौ निन्यानबे में आगे की पढ़ाई के लिए इन्होंने सनातन धर्म इंटर कॉलेज मुजफ्फरनगर में प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर कक्षा नौ में प्रवेश लिया। कक्षा नौ में लगातार सत्रह अमित थे। जिनकी हाजिरी उनके नाम के साथ पिता का नाम बोलकर ली जाती थी। इसी कारण इनकी हाजिरी अमित कुमार की जगह अमित धर्मसिंह बोलकर ली जाती। यहीं से इन्हें अमित कुमार की जगह अमित धर्मसिंह लिखने की आदत बन गई और इन्होंने साहित्यिक रूप से इसी नाम को अंगीकार कर लिया किन्तु अकादमिक रूप से इनका नाम अमित कुमार ही रहा। जिन डॉक्टर के पास ये काम सीख रहे थे उन्होंने गाँव में प्रैक्टिस बंद कर दी और अपने निवास स्थान नुमाइश कैंप मुजफ्फरनगर में क्लीनिक शुरू किया। गाँव से कॉलेज करीब आठ किमी दूर था और नुमाइश कैंप से दो किमी इसलिए डॉक्टर प्रवीण इन्हें अपने साथ नुमाइश कैंप ले आए। जहाँ ये सुबह कॉलेज जाते और उसके बाद क्लीनिक पर रहते। डॉक्टर प्रवीण कुमार साप्ताहिक अख़बार सूरज केसरी से भी जुड़े थे। इनकी पहली तुकबंदी की कविता का प्रकाशन इसी सूरज केसरी अख़बार में हुआ था। इस दौरान इन्होंने कई फैक्टरियों में भी रात की ड्यूटी की। रात में अधिक जागने से मेमोरी लोस की समस्या हो गई। इससे उभरने के लिए कई माह मेन्टेट टेबलेट और शंखपुष्पी का सेवन किया लेकिन ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा। लिहाजा ये कक्षा दस द्वितीय श्रेणी से ही पास हो पाए। ग्यारहवीं में पारिवारिक तंगियों के चलते बामुश्किल पढ़ पाए। बारहवीं में लगाए गए ट्यूशन की फीस अदा न कर पाने के कारण ये बारहवीं की छमाही परीक्षा ही दे पाए। फाइनल परीक्षा न दे पाने के कारण इनकी पढ़ाई सन् 2002 में बगैर बारहवीं पास किए ही छूट गई। ये निराश होकर नुमाइश कैंप से वापस अपने घर लौट आए।

भयंकर बेकारी के दिन शुरू हो गए। इनसे निपटने के लिए इन्होंने कई फैक्टरीज में काम किया लेकिन उनमें मिलने वाली सैलरी आठ सौ या हज़ार रुपए माह की बहुत कम होती थी। इससे कुछ भी काम नहीं सरता था, न इनका और न घर का। हारकर इन्होंने सन् 2002 में वहलना गाँव में ही क्लीनिक शुरू किया साथ ही कक्षा छह से दस तक के बच्चे को घर-घर जाकर ट्यूशन पढ़ाया। सन् 2003 में मुजफ्फरनगर की भरतीया कॉलोनी में क्लीनिक खोला। अपनी स्कूल टाइम की पढ़ने वाली लकड़ी की कुर्सी-मेज और एक अटैची के अलावा इनके पास एक थर्मामीटर, एक स्टेथस्कोप और एक सुई वाली ब्लड प्रेसर की पुरानी मशीन मात्र थी। न कोई दवाई और न दूसरा कोई फर्नीचर। मरीज आते तो दवाई पर्चे पर लिखकर देते। धीरे-धीरे थोड़ी बहुत दवाई जुटाई गई और दुकान का किराया और जेब ख़र्च निकालने की जुगत की जाने लगी। दो-तीन वर्षों में जाकर क्लीनिक में हरे पर्दे, दो बेंच तथा लकड़ी के दरवाजे वाली दुकान में शटर की व्यवस्था हो सकी। इस दौरान इनका पाला कई फाइनेंस करने वालों से पड़ा जो दैनिक किस्त पर कर्ज़ देते थे। यह कर्ज़ लेना जितना आसान होता, उतारना उतना ही मुश्किल होता था। इन वर्षों में कई बार तो इन्हें क्लीनिक की दुकान बदलनी पड़ी-कभी रजिस्ट्रेशन न होने के कारण सीएमओ के परेशान करने से तो कभी क्लीनिक अच्छा चलने पर मकान मालिक द्वारा दुकान खाली करवा लेने की वज़ह से। बार-बार शुरू से क्लीनिक जमाना बहुत मुश्किल होता था। ऐसे में दुकान का किराया निकालने के लिए रात में किसी हॉस्पिटल में ड्यूटी तक करनी पड़ती थी। एक बार इसी समस्या से उबरने के लिए अपने मित्र प्रमोद कुमार के साथ छह सौ रुपए महीने पर एक जूनियर हाई स्कूल में भी पढ़ाना पड़ा। इस तरह दुनिया-भर के आर्थिक और सामाजिक उतार चढ़ाव के बाद बामुश्किल इन्होंने सन् 2005 में राजकीय इंटर कॉलेज मुजफ्फरनगर से बारहवीं का प्राइवेट फॉर्म भरा। इस बार इनके विषय पीसीबी के नहीं बल्कि आर्ट साइड के थे इसीलए एम.बी.बी.एस. बनने का बरसों पुराना ख़्वाब हमेशा के लिए टूट गया। फॉर्म तो भर दिया मगर वर्ष भर ये अपनी आर्थिक तंगियों से ही जूझते रहे। पढ़ना तो दूर बारहवीं की किताबें तक नहीं खरीदी जा सकीं। जिस दिन दोपहर बारह बजे हिन्दी का पहला पेपर था, उस दिन आठ बजे ये कपड़े धोने में लगे थे। बारहवीं का फार्म और परीक्षा कुछ भी याद नहीं था। अचानक इनका एक मित्र संजीव इनके क्लीनिक पर आया। वह ट्यूशन पढ़ाता था। उसने बताया कि आज बारहवीं का पहला पेपर है। उन्होंने इन्हें भी पेपर दे आने के लिए कहा, जिससे कि फेल का ही सही एक लेटेस्ट रिकॉर्ड बन सके। इससे आगे फिर से फॉर्म भरने में सहूलियत होगी और गेप सर्टिफिकेट / एफिडेविट आदि नहीं बनवाना पडे़गा, यही सोचते हुए इन्होंने उसी सुबह राजकीय इंटर कॉलेज से किसी तरह अपना प्रवेश पत्र निकलवाया और बस में बैठकर पहुँच गए नंगला मंदोड़ परीक्षा देने। पेपर में अपनी पूर्व समझ से जमकर लिखा। घर आकर बाक़ी पेपरों के क्वेश्चन बैंक खरीदे और बाक़ी पेपरों की तैयारी करके बाक़ी परीक्षाएँ दीं। आख़िर गिर-पड़कर बारहवीं सेकंड डिवीजन से पास हो गए।

इसके बाद इन्होंने अनेक मुश्किलों के बीच प्राइवेट ही मुजफ्फरनगर के छोटूराम डिग्री कॉलेज (सम्बंधः चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ) बी.ए. सेकंड डिवीजन से पास किया और एम. ए. हिन्दी करने के लिए सनातन धर्म महाविद्यालय मुजफ्फरनगर (सम्बंधः सीसीएस यूनिवरसिटी, मेरठ) में रेगुलर दाखिला लिया। जहाँ से इन्होंने 2011 में एम. ए. हिन्दी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसी वर्ष जून में नेट और दिसम्बर में नेट / जेआरएफ की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। सन् 2012 में इन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी, दिल्ली में पीएच.डी. में प्रवेश के लिए फॉर्म डाला। कई इंटरव्यू के बाद 26 जुलाई 2013 को इनका प्रवेश पीएच. डी. में हो गया। इस तरह इन्होंने 'प्रभाष जोशी के लेखन में राष्ट्रीय एवम् सांस्कृतिक चेतना' विषय पर प्रो. कैलाश नारायण तिवारी जी के निर्देशन में 30 अक्टूबर 2018 को अपनी थीसिस डी. यू. में जमा कर दी। ल्ेकिन इस मुकाम तक पहुँचने के लिए इन्होंने न जाने कितने पापड़ बेले। न जाने कितने काम किये और छोड़े। बचपन में घास ढोया, गन्ने बुवाये और छोले, साड़ी काटी यानी गेहूँ काटे, मंुजी काटी और छेती, आलू और गेहूँ की बाल चुगी, चुस्कियाँ बेची, लोहा चुगकर बेचा। थोड़ा बड़े हुए तो स्वेटर मशीन की गोल मशीन और फ्लेट मशीन पर काम किया। रोलिंग मिल के गाटर, पालिश, तीन नंबर, दो नंबर और पुसर पर काम किया। कनस्तर फैक्टरी में काम किया। गाँव वहलना से शुरूआत करके मुजफ्फरनगर की भरतिया कालोनी, कमल नगर, शहाबुद्दीनपुर रोड़ रामपुरी, बच्चनसिंह कालोनी में क्लीनिक चलाया। गेनोडर्मा लूसीडम से दवाई तैयार करने वाली डी एक्स एन कंपनी से जुड़कर काम किया। एम. एल. एम. कंपनी सफायर से जुड़े। सहारा इण्डिया परिवार से अभिकर्ता के तौर पर जुड़कर लोगों की आर. डी, एफ. डी. की। सैकडों गीत लिखे और नोएडा फ़िल्म सिटी में स्थित टी-सीरीज कंपनी के चक्कर काटे। दिल्ली के सुंदर नगरी निवासी टी-सीरीज कंपनी में काम करने वाले एक म्यूजिक डायरेक्टर को अपने बावन गीत दिये, जिनका कुछ नहीं हुआ। म्यूजिक रूझान के चलते कुछ दिनों वहलना गाँव के ही हारमोनियम मास्टर शिवकुमार के पास हारमोनियम सीखा। हारमोनियम खरीदा, मगर उचित शिक्षा-दिक्षा के रास्ते साफ़ न हो सके। सरधना कि पी. के. फ़िल्म्स की फ़िल्म 'राजू मेरा नाम' के लिए छह गीत लिखे, जो रिकार्ड हुए जिनमें दो गीत इनके मित्र राजा ने गाये, लेकिन फ़िल्म न बन पाने के कारण रीलिज नहीं हुए। एल. आई. सी. के अभिकर्ता बने और लोगों के बीमे करवाये। मुजफ्फरनगर के कई हास्पिटल में रात की ड्यूटी की। कंप्यूटर और टाइपिंग का कोर्स किया। टाइपिंग के साथ शोर्ट हैंड सीखनी शुरू की लेकिन दूसरी व्यस्तताओं के चलते सीखी न जा सकी। कंप्यूटर की आरंभिक शिक्षा इण्टर कालेज में ली लेकिन प्रैक्टिस, कंप्यूटर न होने की वज़ह से कई वर्षों बाद आठवीं के सहपाठी परवेन्द्र के पास करनी पड़ी। सभी कार्य इन्होंने पार्ट टाइम किये। मुख्य तो ये मैडिकल लाइन से ही जुड़े रहे; कक्षा पांच यानी 20 अक्टूबर 1994 से सन् 2002 तक काम सीखने और सन् 2003 से सन् 2011 तक मैडिकल प्रैक्टिशनर के तौर पर। पै्रक्टिश का आधार बिहार से प्राप्त डी.ए.एम.एस. का डिप्लोमा और दिल्ली से प्राप्त एम.आइ.एम.एस का सर्टिफिकेट बना। सी.एम.ओ. के पास स्थानीय रजिस्ट्रेशन शुरू हुए तो प्रैक्टिस के लिए दोनों सर्टिफिकेट अमान्य हो गए। सन् 2012 में डी. यू. में पीएच.डी. में प्रवेश प्रक्रिया शुरू होने पर बच्चन सिंह कालोनी स्थित क्लीनिक आदर्श कालोनी में लाकर रचनाकार प्रकाशन के आफिस में तब्दील कर दिया गया। प्रकाशनों पर जी.एस.टी. की गाज गिरी तो सन् 2018 के अंत में प्रकाशन का यह आफिस बंद कर दिया गया।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि इन्होंने कविता कि तुकबंदी कक्षा पांच से ही शुरू कर दी थी। इस दौरान इन्होंने हजारों कॉमिक्स और वेदप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक आदि के दर्जनों उपन्यास पढ़े। इनकी कविता का पहला प्रकाशन 1999 में मुजफ्फरनगर के 'सूरज केसरी' साप्ताहिक अख़बार में हुआ था। तत्पश्चात् मुजफ्फरनगर के करीब सभी अखबारों में इनकी अवसरानुकूल रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं। सन् 2002 में बारहवीं छूट जाने के बाद इन्होंने कोर्स से अलग बहुत-सी किताबें खरीदकर पढ़ीं। यथा मधुशाला, कामायिनी, संघिनी, गोदान, सेवासदन, चित्रलेखा, सूरज का सातवां घोड़ा, साए में धूप, सफ़र में धूप तो होगी आदि। सन् 2003 में इनका जुड़ाव जनपद की साहित्यिक संस्था वाणी से हुआ। यहीं इनका परिचय अतुकान्त कविताओं से हुआ और इन्होंने तुक्कड़ कविताओं से अतुकान्त कविताओं की राह ली। इनकी पहली अतुकांत कविताओं का प्रकाशन सन् 2005 में 'वाणी' में वार्षिेक संकलन 'उन्नयन' (संपादकः परमेन्द्र सिंह) में हुआ। इस दौरान इन्होंने कई कवि सम्मेलनों और मुशायरों में सफल काव्य पाठ किया। जिनमें से कुछ में ये काफ़ी जमे भी मगर मंचों की अगंभीरता और नाटकीयता इन्हें अधिक पसंद नहीं आयी और इन्होंने अध्ययन की ओर रुख किया। कई अन्य चर्चित पुस्तकों के साथ वाणी के भी कई वार्षिक संकलन और वाणी सदस्यों के कई संग्रह पढ़े। उनकी जैसी बन पड़ी समीक्षाएँ भी लिखीं जो अखबारों और विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं। बी. ए. फर्स्ट ईयर यानी सन् 2007 में इनका काव्य संग्रह 'आस विश्वास' जीवंत प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। जिसे प्रकाशित करने में जनपद के वरिष्ठ कवि तुलसी नीलकंठ ने रचनात्मक सहयोग दिया। तुलसी से इनका परिचय सन् 2006 में जनपद की ही हिंदी-उर्दू साहित्यिक संस्था 'समर्पण' की गोष्ठी में हुआ था। उसके बाद कई वर्षों तक इनकी प्रगाढ़ मित्रता रही। इसी मित्रता के चलते आस विश्वास की सन् 2009 में स्मारिका प्रकाशित हुई। इसका संपादन और प्रकाशन भी तुलसी नीलकंठ ने ही किया था। तुलसी के साथ मिलकर सन् 2009 में रचनाकार प्रकाशन की स्थापना हुई। जिससे अब तक कई दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सन् 2012 में तुलसी नीलकंठ इस दुनिया को अलविदा कह गए लेकिन प्रकाशन का कार्य बदस्तूर जारी रहा क्योंकि प्रकाशन का कार्य इन्होंने शौक या व्यवसाय के लिए नहीं अपितु पहचान के संकट की वज़ह से शुरू किया था, जो अभी तक बना हुआ है।

सन् 2008 में वाणी के वार्षिक संकलन धरातल (संपादकः नेमपाल प्रजापति) के विमोचन में इन्होंने पहली बार ओमप्रकाश वाल्मीकि को सुना और इनका पहली बार दलित साहित्य से परिचय हुआ। इन्होंने देखा कि किस प्रकार लोग दलित साहित्य और साहित्यकारों से चिढ़ते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने अपने वक्तव्य में कामायिनी की वैज्ञानिकता पर बड़े तार्किक प्रश्न उठाएँ थे। जिससे कार्यक्रम में गैर दलितों द्वारा काफ़ी आपत्ति उठाई गई थी। उसके बाद इन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि की कई पुस्तकें सदियों के संताप, सलाम और जूठन आदि खरीदकर पढ़ी और दलित साहित्य को समझने की कोशिश की। इस संदर्भ में जनपद के साहित्यकार हरपाल सिंह अरुष की पुस्तक 'दलित साहित्य की भूमिका' ने भी पर्याप्त मदद की। वाणी की गोष्ठियों में दलित और गैर दलितों के बीच जो बहस छिड़ी उससे भी दलित साहित्य और गैर दलितों कि मानसिकता को समझने में वैचारिक मदद मिली। लेकिन इस संदर्भ में कुछ भी लिखा-पढ़ा नहीं क्योंकि इसकी कई बाध्यताएँ थीं। खासतौर से अकादमिक और सांस्थानिक। इन्हें एम.ए. हिन्दी करना था और वाणी से जुड़े रहना था और कॉलेज और वाणी संस्था दोनों दलित साहित्य को नापसंद करने वाले थे। चूंकि इनकी शिक्षा में पहले ही चार वर्ष का गैप आ चुका था और इस दौरान इन्होंने बहुत बुरे दिन देखे थे। ये न तो शिक्षा में और न जीवन में कोई व्यवधान चाहते थे। इन्होंने ख़ामोश रहकर ही पढ़ाई करना और ज्ञानार्जन करना उचित समझा। परिणाम स्वरूप ये रचनाकार प्रकाशन से न सिर्फ़ जनपद के कई रचनाकारों की पुस्तकें प्रकाशित कर पाए बल्कि सन् 2013 में वाणी के उन्नीसवें संकलन 'समन्वय' का भी संपादन कर सके। वाणी ने सचिव पद तो इन्हें किन्हीं मजबूरियों के चलते सौंपा था। दलित साहित्य को लेकर जो विवाद वाणी में छिड़ा उसके चलते वाणी के कई सदस्यों के साथ तत्कालीन सचिव अश्वनी खंडेलवाल ने भी इस्तीफा दे दिया था इसलिए सहसचिव होने के नाते सचिव का कार्य भार इन पर आ पड़ा था।

सन् 2014 में ये दिल्ली आ गए और पीएच.डी. को पूरी तरह समर्पित हो गए। हालांकि इनका कविता आदि लिखना जारी रहा मगर दलित साहित्य के संदर्भ में यहाँ भी इन्होंने वैसी ही बाध्यता महसूस की जैसी मुजफ्फरनगर में महसूस की थी। हुआ ये कि ओमप्रकाश वाल्मीकि के देहावसान के बाद डी. यू. में उनकी शोक सभा रखी गई थी जिसमें वक्ताओं के अतिरिक्त श्रोताओं को भी अपनी बात रखने की अनुमति दी गयी। इन्होंने भी ओमप्रकाश वाल्मीकि और सामाजिक असमानता पर अपने विचार रखे जो वामपंथियों को तो बहुत पसंद आए किन्तु बाकियों को ज़रा भी नहीं सुहाए। इससे इन्हें अहसास हुआ कि चुपचाप पीएच.डी. लिख लेना ही बेहतर है। इन्होंने किया भी ऐसा ही। ये दिल्ली में रहते हुए किसी भी दलित अथवा प्रगतिशील मंचों से नहीं जुड़े। इस कारण ये लिखने-पढ़ने के बाद भी दलित लेखकों तथा संगठनों से हाशिए पर रहे। ऐसे में ये अकादमिक विवशता को तो महसूस करते ही साथ ही स्थापित दलित लेखकों की उस गैर जिम्मेदारी को भी महसूस करते जिसके चलते वे न तो नवागंतुकों का ध्यान रखते हैं और न ही अपनी महत्त्वाकांक्षाओं से बाहर आते हैं। कहिए कि एक विशेष प्रकार की मठाधीशी कुछेक दलित साहित्यकारों में भी दिखायी देती है जो बहुत निराश करने वाली थी। बावजूद इसके इन्होंने लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा और बगैर किसी संगठन से जुड़े निरंतर सृजनरत रहे। सन् 2015 में इनकी मुलाकात डी.यू. में पीएच.डी. कर रही गीता रानी से हुई। गीता रानी 'हिन्दी दलित कहानियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन (1980 से अब तक) विषय पर डॉ. रजत रानी मीनू जी के निर्देशन में शोधरत थी। गीता से परिचय बढ़ा तो उसका रचनात्मक लाभ इन्हें भी पहुँचा। इन्होंने गीता से लेकर हिन्दी दलित कहानियों के दर्जनों कहानी संग्रह और दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र तथा समाजशास्त्र आदि की कई पुस्तकें पढ़ीं। जिनमें से मोहनदास नैमिशराय के हमारा जवाब, अपना गाँव, श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कंधों पर तथा कहानी संग्रह भरोसे की बहन, रजत रानी मीनू का कहानी संग्रह हम कौन हैं, सुशीला टांकभोरे के' टूटता वहम और अनुभूति के घेरे, जयप्रकाश कर्दम का खरौंच, ओमप्रकाश वाल्मीकि और शरणकुमार लिंबाले की अलग-अलग पुस्तकें-'दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र आदि उल्लेखनीय हैं। प्रभाष जोशी के संपूर्ण साहित्य और शोध सम्बंधी सैकड़ों पुस्तकों के अलावा तुलसीराम की मणिकर्णिका और मुर्दहिया, जूठन का दूसरा खंड, डा. धर्मवीर की मैं मेरी पत्नी और भेड़िया, सामंत का मुंशी, प्रेमचंद की नीली आंखें आदि पुस्तकें खरीदकर पढ़ीं। इसी बीच ये गीता के साथ 14 फरवरी 2018 में वैवाहिक बंधन में बंधे। उल्लेखनीय है कि छह बहन भाइयों (सुमित, अनित, रचना, प्रतिभा, विपिन) में सबसे बडे़ होने के बाद भी इन्होंने अपने विवाह से पूर्व दो छोटे भाइयों (सुमित और अनित) के विवाह किए। अभी तक, विविध पत्रिकाओं में इनके एक दर्जन से अधिक शोध-पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ कवितायें भी इधर-उधर प्रकाशित हुई हैं। सन् 2017 में नमन प्रकाशन से इनका लेख और समीक्षाओं आदि का संग्रह' रचनाधर्मिता के विविध आयाम'प्रकाशित हो चुका है। सन् 2018 में शोध आलेखों का संग्रह' साहित्य का वैचारिक शोधन'शिल्पायन से प्रकाशित हुआ और शिल्पायन से ही इसी वर्ष इनकी संपादित पुस्तक' विरले दोस्त कबीर केः एक मूल्यांकन'प्रकाशित हुई। यह पुस्तक प्रो. कैलाश नारायण तिवारी जी के चर्चित उपन्यास' विरले दोस्त कबीर के'पर आधारित है। हाल ही में बोधि प्रकाशन से इनका कविता संग्रह' हमारे गाँव में हमारा क्या है! 'प्रकाशित हुआ है जो खासा चर्चा में है। इस संग्रह की कविताएँ आत्मकथात्मक कविताएँ हैं जो दलित साहित्य में अपनी तरह की अलग कविताएँ हैं। अमित धर्मसिंह के उक्त संग्रह को जयप्रकाश कर्दम ने दलित साहित्य की पहली काव्यमय आत्मकथा कहा है प्रो. कैलाश नारायण तिवारी ने इनकी कविताओं को निर्दोष शैली की कविताएँ बताया है। कवि मलखान सिंह ने' हमारे गाँव में हमारा क्या है! को कवि और दलित साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि बताया है। कमलाकांत त्रिपाठी ने संग्रह की कविताओं को अनुभव संसार में कुछ नया जोडने वाली कविताएँ बताया है। फिलहाल ये परिवार की विविध जिम्मेदारियों के साथ लेक्चरशिप के लिए संघर्षरत हैं।