फैज़ाबाद की नन्हीं अमीरन को,
खूब लुभाते-लाल रंग में रंगे पांव
करती चाव से इंतजार
कब बैठे पड़ोस की पंडिताइन लगाने रंग,
और वे झट से बढ़ा दे
अपने छोटे-छोटे पाँव
चौड़े-गहरे लाल आलते की रेखा
अमीरन के दोनों पाँव की उंगलियों के
बीच-बीच से गुजरती
पाँव के दोनों किनारों को रंगती आती पर,
ऐड़ी के करीब पहुँचने से पहले थम जाती
ऐड़ी खुली छोड़ने से मायूस अमीरन
आस-पास घरों में जा
पंडिताइन की शिकायत लगाती
परन्तु सब काकी एक ही बात दोहरातीं
कुंवारी लड़कियों की, ऐड़ी नहीं रंगी जाती
उसका करता मन, कह अब्बू से
निकाह ले पढ़वा-फिर फिरे बेपरवाह
घने घुंधरूओं की पाजेब पहन
जिसकी आवाज़ से छनछनाये पूरी गली छन छनन छन
कलकत्ते के लाल रंग से भरे ऐड़ियों में सुहाग
पूरा हो पैरों को सजाने का ख़्वाब-
अमीरन पूरी तरह बचपन से निकली भी न थी,
कि बन गई कोठे की उमराव;
शौहर का नाम न मिला-पर शौहरत मिली तमाम
पैरों की सजावट खूब हुई
जब उमराव से बनी उमराव जान
पूरी गली में छनछना उठते घुँघरू
सजती जब महाफिल हर शाम
रोज बाँधती घुँघरू; आलता लगाती
परन्तु ऐड़ी तक पहुँच
उंगली उसकी ठिठक जाती
पुरानी यादों से पंडिताइन की
बात याद आती
जो उसे तर्क वितर्क के कटघरे में
घसीट ले जाती
न थी सुहागिन वे
न ही कुंवारी
इसलिये भर रंग से एक पाँव की ऐड़ी
छोड़ देती दूसरे पाँव की खाली