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अमृत-कलश / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’

ये कुंभ है प्रतिमान मेरा,
कुंभ-सा प्रतिदान है
इस माटी से निर्मित हुई
मिलूं माटी अंर्तज्ञान है...
ये कुंभ-सा प्रतिदान है

सर्वप्रथम उद्देश्य हेतु
माटी सम रौंदी गई
आकार लेती चाक चढ़
किसी शिल्पी को सौंपी गई...
मैं माटी सम रौंदी गई।

नर्म और कोमल मृदा मन
शुष्क बन जलता रहा
तपती रही घनी धूप में
परिवेश वश ढ़लता रहा...
ये शुष्क मन जलता रहा

भीषण अनल के ताप जलती
रंग अपना खो चुकी
मटमैली-सी आभा भुलाकर
वर्ण स्वर्णिम हो चुकी..
हां... रंग अपना खो चुकी

उद्देश्य हेतु हर पहल
स्वयं में समाहित कर गरल
हो निर्विकारी शांत मन तो
विष स्वतः बने गंगाजल...
स्वयं में समाहित कर गरल

है बाध्यता प्रतिमान की
निज कुंभ लौकिक ज्ञान की
निश्छल छलकता जाए जल
अनुभूति के प्रतिदान की...
निज कुंभ लौकिक ज्ञान की

माना पिपासा हो प्रबल
सान्निध्यता दे तृप्ति पल
अमृत कलश जो नितांत स्वयंभू,
दीप्त ज्योतिर्मय विरल..
स्वयं शांत कर दे मन विकल...