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अमृत कुम्भ / ज्ञानेन्द्रपति

है तो सधी हुई चाल, संयत भंगी, लजालु दृढ़्ता

लेकिन अमृत-कुम्भ छलकता है

तुम नहीं जानती हो

जानते हैं मेरे हरियाये प्राण