Last modified on 9 जुलाई 2022, at 12:30

अम्बा / अर्जुन देव चारण

काशीराज की तीन पुत्रियों को उनके स्वयंवर से भीष्म हरण कर ले आए। वे उनका विवाह अपने भाइयों से चाहते थे। पर उन में से एक पुत्री अंबा ने उन्हें बताया कि वह तो किसी अन्य से प्रेम करती है और इस स्वयंवर में वह उसका वरण करने वाली थी। तब भीष्म ने अंबा को अपने प्रेमी के पास वापस भेज दिया। अंबा को उसका प्रेमी स्वीकार नहीं करता है। अंबा दुविधा में भीष्म के पास जाती है पर भीष्म उसका विवाह अपने भाइयों से कराने से मना करते हैं। अंबा स्वयं भीष्म से विवाह का प्रस्ताव रखती है पर भीष्म ने तो आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया हुआ है।
अंबा अपने साथ हुए इस अन्याय का दोषी भीष्म को मानती हैं। वह अन्य राजाओं से भी अनुरोध करती है पर भीष्म से लड़ने को कोई तैयार नहीं होता। तब वह अपने हाथों की वरमाला को राजा द्रुपद के दरवाजे पर टंगा देती है और महेन्द्राचल पर्वत पर जाकर चिता बनाकर स्वयं को भस्म कर देती है।
वह वरमाला राजा द्रुपद की बेटी शिखंडी बाल्यकाल में अपनी शरारतों में अनजाने अपने गले में पहन लेती है। वही शिखंडी कालांतर में भीष्म को मारता है। शिखंडी के बाणों को भीष्म ऐसे स्वीकार करते हैं जैसे वे अंबा की वरमाला के फूल हो, और इस भांति वे अपनी गलती का पश्चाताप कर रहे होते हैं। यह कविता इसी पूरे प्रसंग को पकड़ने का प्रयास है।

फूलों-फूलों
छिपी हुई
अग्नि की लपटें
डोरी में बंटी हुई
प्रत्यंचा
कमान की
पुष्पहार नहीं होता
वह
होता है साक्षात काल
तुम्हारे हाथों का
ऐसा दुष्कर भार
कौन धारण करता।

जाने किस घड़ी-पल
गुंथा गया
उपयुक्त कंठ का इंतजार
अंगुलियां में
करवटें बदलता रहा।

भुजाओं के बल
वह नामचीन योद्धा
उठाकर
ले गया तुम्हें,
वरण को
हरण में ढाल
परोसने लगा
दूसरो के आगे।

तुम
नहीं रोयी थी
उस दिन
रोया था पुष्पहार
रोया था मार्ग
रोया था समय
उस गीली जमीन
गुमान का रथ
प्रीत को कुचलता
उकेरता
जीत के निशान
निकल गया
धर्म-पताका लहराते हुए।

कितने हाथों के सामने
फैले थे
दो हाथ,
कितने मार्गों चढ़े-उतरे
दो पांव
किंतु बहरा होकर
बैठ गया
पूरा संसार,
कसमसाते रहे पुहुप
सांसों के रंग रंगे जाने को
छटपटाती रही खुशबू
बंधी हुई
ऐंठती रही
मुक्ति के लिए
घर की प्रतीक्षा में
टंगी रही
राजद्वार पर।

तुम्हारे भाग्य में
लिखा था मार्ग
चलना... चलना... चलना...
मार्ग के भाग्य
लिखी हुई थी आशा
इंतजार... इंतजार... इंतजार...
आशा के भाग्य
रेखांकित था समय
मौन... मौन... मौन...
समय
आशा
मार्ग
सदा रहते हैं जींवत
भेष बदलते हैं
जन्म लेने वाले
जीने वाले
जाने वाले
उनके कारण
बदल जाती है आशा
आशा के कारण मार्ग
मार्ग के कारण समय।
हे सदा सौभाग्यवती
हे अक्षत कुंवारी
कुदरत ने स्वयं दिया
तुम्हें मां का नाम
तुम्हारे बालों के बीच की रेखा ने
पूरे संसार को
कुमकुम बांटा
तुम्हारी सुरंगी हथेलियों
धरती रची
मेहंदी के रंग
तुम्हारी आंखों की
रक्तिम लालिमा से लहराता है रत्नाकर।

हदय में संजोये
एक आस
तुमने
बैर को
बच्चे की तरह पाला-पोसा
क्रोध से सजी-संवरी
दुतकारती मनुष्य जाति को
प्रज्ज्वलित कर अग्नि
हो गई एकमेक।

अनजान
उस राजकुमरी ने
अपनी चंचलता वश
कर लिया
धारण तुम्हारे पुष्पहार को
बैर को
रास्ता मिला,

जानता था
वह बूढ़ा
सुगंध
कभी बूढ़ी नहीं होती
नहीं होती
कभी
बूढ़ी प्रीत
उस राजकुमारी के
बाण
उसने हंसते-हंसते अपने सीने पर
अनजाने में
हो गया था उससे पाप
स्वीकारते हुए
करना था पश्चाताप
सुगंध की मुक्ति में
उसकी मुक्ति थी।

वे बाण नहीं थे
फूल थे
वरमाला के
रूप बदल कर
ढूंढ़ लिया था आसरा,
हरण को
वरण में ढाल
इस भांति
सुगंध मुक्त हुई।

अनुवाद : नीरज दइया