देखो उन खाली,
निराश और पत्थर हो गई
आंखों को और बताओ कि-
तुम्हारे लोकतंत्रा की
कौन-सी तस्वीर
उभरती है इनमें
गौर से निहारो
वक्त के थपेड़ों से
असमय ही बूढ़ी और
जर्जर काया को
जो आज भी तुम्हारी व्यवस्था को
मैले के रूप में ढ़ोती है
और एक बार में
न जाने
कितने आंसू रोती है
कभी सोचा है?
बरसों से खंडहर हो गई
इस देह से जुड़े कांधे
कैसे उठा पाए
चार-चार संतानों के
शवों का बोझ
जो एक-एक कर चढ़ गए
तुम्हारी व्यवस्थाजनित
भूख, बिमारी, गरीबी और
बेकारी की बलि
अब भी क्यूं नहीं कांपा
तुम्हारा हृदय
क्यूं नहीं आया
कलेजा मुंह को
क्योंकि...
वह तुम्हारे गढ़े
झूठे इतिहास की
नायिका नहीं है
न ही वह
तुम्हारे थोथे धर्मग्रंथों की
वरदायिनी मां है
वह तो एक दलित स्त्री है
जो इतिहास के पन्नों
और धर्मग्रंथों के
श्लोकों मे नहीं मिलती
वह मिलती है दलित बस्ती में
अपने दर्द को छिपाए
हाथ में झाडू और
सिर पर टोकरी उठाए