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अम्मा को देखकर / स्वाति मेलकानी

     अम्मा तुम बीड़ी पीती हो
     और तुम्हारी आजादी का
     एक धुँआ सा फैल रहा है
     आसमान में
     तेज धूप है
     और सामने की चोटी पर
     तुम बैठी हो
     अपनी ही काटी घास के
     गट्ठर पर पीठ टिकाए।
     काले और भावहीन चेहरे पर
     कई लकीरें भर डाली हैं जंगल ने
     सूखती देह पर
     पेड़, झाड़ियाँ और कैक्टस उग आये हैं,
     लेकिन इन पलकों में अब तक
     हरी बेल वह झूल रही है
     जिसमें जंगली फूल खिले थे
     सुर्ख लाल अपने ही जैसे
     आश्चर्य... इस फैले सन्नाटे में भी
     कैसे न सुन पाया कोई
     बसंत की आहट।
     सबके ही तो कान लगे थे
     उस दरवाजे की साँकल पर
     जिसके भीतर तुम रहती थी
     अकेली।