ओ रे अभिशप्त गीत!
मेरे संतप्त मीत!
अरसिक हों जहां
वहां चाहना सराहना
स्वयं पर ही व्यंग्य है!
ऐसे में काहे का क्षोभ
क्या उलाहना!
तू जहां चला आया
वह चतुर, सयानों
व्यवहार कुशल लोगों की
अनासक्त दुनिया है
उद्धव-सा हर कोई
मंत्रपूत ज्ञानी है
बाहर से भीतर तक
केवल निरगुनिया है!
नंद या यशोदा का
कारुणिक प्रलाप
इन्हें या तो हास्यास्पद
या फिर जुगुप्सु लगता है
गोपी के हर प्रसंग से
आती उबकाई
या फिर इनमें जगती
सर्प-सी सजगता है!
ओ मेरे भ्रमर-गीत!
बिसरा दे श्याम-प्रीत!
रेतिल परिवेशों में
यमुना अवगाहना
स्वयं पर ही व्यंग्य है!
ऐसे में कैसा उद्वेग
क्या कराहना!
इन अरसिक लोगों को
गीत निवेदित करना
विधना ने मेरे ही
भाग्य में बदा है
सिकता में खोजना
रसिकता है व्यर्थ, मगर
यह दुष्कर कर्म विवशता
मेरी विदा है!
भावुकता छीज गई
चुका सहज स्नेह यहां
बांझ हूं, चुकी है
हर संवेदनशीलता
इनकी रुचियां विचित्र
गंध से बिदकते ये
रंग इन्हें चुभता है
फल इन्हें छीलता!
ओ मेरे साम-गीत!
इस युग की अजब रीत!
मायावी लोगों का
गोपित मन थाहना
स्वयं पर ही व्यंग्य है!
ऐसे में कैसा सौहार्द
क्या निबाहना!
-21 फरवरी, 1986