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अरे नादान क्यों उलझा है तू चूल्हे बदलने में / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

अरे नादान क्यों उलझा है तू चूल्हे बदलने में
ये गीली लकड़ियाँ हैं क्यों धुआँ देंगी न जलने में
 
तुम अपने झूठ को कितने दिनों आबाद रक्खोगे
समय लगता नहीं है बर्फ़ के ढेले पिघलने में
 
हमारे लड़खड़ाने पर हँसो मत ऐ जहाँ वालो
बहुत अभ्यस्त हैं हम लोग गिर-गिर के सम्हलने में
 
तुम अपना उल्लू सीधा कर चुके हम कुछ नहीं बोले
तुम्हारा मुँह बना है क्यों हमारी दाल गलने में
 
ज़रा सा रेंगने में हाँफते हो, बैठ जाते हो
मुसीबत ही मुसीबत है तुम्हारे साथ चलने में
 
न जाने ज़िन्दगी के नाज़-नखरे कैसे झेलोगे
तुम्हारा हौसला है पस्त बच्चे के मचलने में
 
गुरूर इस रात का भी टूटने पर आ गया देखो
ज़रा सी देर है अब तो 'अकेला' दिन निकलने में