बाहुबंधन में किसी के, मैं पिघल पाता कभी
देह यों तिल-तिल जलाना, अर्थ कुछ पाता तभी
हर सुमन की पाँखुरी ने
अर्थ पाया अर्चना में
धूप ने, अक्षत, अगरू ने
आरती में, वंदना में
अक्षु गंगाजल किसी के नख परस पता कभी
देह यों तिल–तिल जलना, अर्थ कुछ पता तभी
सुर्य सार्थक साँझ के नित
वक्ष पर दम तोड़ कर ही
चाँद रजनी के अधर पर
किरण सोम निचोड़ कर ही
केशधन में बिजलियाँ बन कर तड़प पता कभी
देह यों तिल–तिल जलाना, अर्थ कुछ पता तभी
गीत तब तक व्यर्थ जब तक
पीर मे परिचय न नाता
पीर भी वह व्यर्थ जिसका
तीर प्राणों तक न जाता
तप्त चुंबन में कुँआरा प्राण गल पाता कभी
देह यों तिल–तिल जलाना, अर्थ कुछ पाता तभी