Last modified on 1 नवम्बर 2009, at 11:22

अर्द्धसमाप्त जीवन / अजन्ता देव

क्या यही मृत्यु है
जबकि सब-कुछ रह गया पहले सा
मैं भी मेरा जीवन भी
रह गया लोकस्मृति में

आशा रह गई पुनर्जन्म की
खीज रह गई कुछ नहीं पाने की
शरीर गया पर रह गया अशरीर
पृथ्वी रह गई विहंगम कोण से दिखती हुई
रह गई पिपासा जो नहीं मिटेगी जल से

क्षुधा स्वयं को खा रही है
निद्रा घेर रही है चेतना को
महास्वप्न में दिख रहा है तुम्हारा चेहरा
मेघ में आकृति की तरह
अनहद के पार से
पुकार रही हूँ तुम्हें
चातक की तरह नहीं
अपनी तरह

मृत्यु भी पूर्ण नहीं कर सकी
एक अर्द्धसमाप्त जीवन ।