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अर्र मर्र के झोपरा / मुसाफ़िर बैठा

बचपन की बारिश का यादों में दखल
अब भी जीवन में बचा बसा है इतना
कि भीग जाता है जब तब
उसकी गुदगुदी से सारा तनमन

मेरे समय के नंग धड़ंग बचपन में
बारिश का भीगा मौसम
गांव भर के कमउमरिया या कि
मेरे हमउमरिया बच्चों के लिए
बेहिसाब मस्ती का उपादान बन आता था

उन दिनों टाट मिट्टी और फूस के ही
घर थे अमूमन सबके और
फूस व खपरैल की बनी होती थी छप्पर
गहरी तिरछी ढालों वाली
छप्परों की ओरियानी से फिसल कर
जो मोटी तेज जलधार बहती थी छलछल धड़धड़
उसके नीचे आ बच्चों का नहाना आपादमस्तक
मौजों के नभ को छू लेना बन जाता था जैसे

छुटपन की उस गंवई मस्ती पर
टोक टाक या पहरा भी नहीं होता था कोई
ऐसा निर्बंध आवारा मेघ आस्वाद पाना
उन नागरी बच्चों को कहां नसीब
जिनके बचपन के प्रकृतिभाव को
हिदायतों औ’ मनाहियों की बारिश ही
सोख लेती है काफी हद तक
और कुछ बूंद बारिश से भी संग करने को
ललचता मचलता रह जाता है शहरी बचपन

हमारे बचपन में हमारी गंवई माएं भी
होती थीं हर मां की तरह फिक्रजदा जरूर
मगर हम बच्चों के भीगने पर नहीं
बल्कि तब
जब कई कई दिनों तक
लगातार होती आतंक में तब्दील हो गई बारिश
थमने थकने का नहीं लेती थी नाम

मां की चिन्ता भी तब
चावल के उफनाए अधहन की तरह
बेहद सघन और प्रबल हो आती थी
जब घर का छप्पर बीसियों जगह से रिसने लगता
और सिर छिपाने को बित्ता भर जगह भी
नहीं बचती घर के किसी कोने अन्तरे में

जर जलावन चूल्हे तक की
ऐसी भीगा पटाखा सेहत हो जाती
कि हमारे घर भर की सुलगती जठराग्नि को
बुझाने की इनकी खुद की ज्वलन शक्ति ही
स्थगित हो जाती

मां मेरे जैसा महज खुदयकीनी नहीं थी
दुख एवं सुख की हिसाबदारी में
ऊपरवाले का हाथ होने में
भरठेहुन विश्वास था उनका भी
हर परसोचसेवी इंसान की तरह

बेलगाम आंधी पानी से
बरसती इस आफत की बेला में
मां भी जलदेवता का गुहार लगाती-
      अर्र मर्र के झोपरा
      अब न बरसा दम धरा
      हे गोसाईं इन्नर देबता
      तू बचाबा हम्मरा
और भी न जाने क्या क्या बदहवास
गंवई देसी जुबान में बुदबुदाती
इस आई बला को टालने का
कोई और टोटका भी करती जाती

हम बच्चे बड़े कौतूहल और आशा संचरित निगाहों से
मां के इन संकट निरोधक उपचारों के
बल और फलाफल का
रोमांच आकुल हो बेकल इंतजार करने लगते

तब मुझे कहां मालूम था कि
मौसमविज्ञानी की भविष्यबयानी और
कथित वर्षा देवता की कृपा अकृपा
दोनों ही साबित हो सकते हैं अंततः
सिर्फ मनभरम और छलावा

बारिश से अब भी है साबका
पर बचपन की बारिश में
केवल भीगता था उमगता मन
अबके होती बारिश में
भीगता है अंतर्मन भी
मथती जब बारिश की बाढ़ ।
   
भादो, 2008