दूर तुम तब भी थे
दूर तुम अब भी हो
बदली है बस
दूरी की तासीर
तुम्हारे-मेरे बीच
कभी थीं आम की घनी अमराइयाँ
बौराई हुई
मादक दूरी
अब उग आये हैं बीच
कैक्टस के जंगल
जो तुम तक पहुँचने की
हर लहराती कोशिश को तोड़ देते हैं
यह तीखापन
हो सकता है तुम्हारी मज़बूरी
पर सोचो तो
कौन सा चेहरा सजता है
खँरोचों से
अपनापे का ऊष्म-ज्वार
उमड़ता है होंठों पर
पर स्पर्श पाते ही तुम्हारी ठंडी पाषाणी दृष्टि का
जम जाती है
एक जीवंत धारा
और मैं ठिठुरती रहती हूँ
हिमनदी-सी
एक मख़मली हरियाली थी
तुम्हारे-मेरे बीच
न जाने क्यों लगता है अब
हरियाली एक घातक नकाब है
नीचे खुदी हैं बारूदी खँदकें
पाँव धरते ही
फटेगी तुम्हारे होंठों पर
डायनामाइट की तरह एक मुस्कान
और जला देगी मुझे
मैं
जो हरियाली की ठगी
उसे बारूद का जंगल
मान नहीं पाती
नहीं मान पाती
तुम्हारे-मेरे बीच
अब सिर्फ सन्नाटा है
बुनते रहते हैं हम
एक खामोशी
आँखों से आँखों तक
कुछ न कहना
तुम्हारी समझदारी है शायद
पर दर्द का यह बाँझपन
सालता रहता है मुझे
रिसती रहती हूँ
गुमसुम
आँखों के कोरों से
दर्द को सींचना
फर्ज़ होता है उनके लिए
दर्द ही जिनकी पहचान होती है।
1983