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अलिफ़ सुलगते हुए दिनों के / नईम

अलिफ सुलगते हुए दिनों के-
बुझी-बुझी-सी शामो-सहर के-
क्या, कैसे ये नक्शे होंगे,
कैसे ग्राफ गढ़े जाएँगे?

इनका भाषा में बँध पाना,
रंगों के घेरे में आना,
थोड़ा भी आसान नहीं है
इनको खिसकाना, टरकाना।

लिपि ही नहीं पड़ रही पल्ले,
पड़े बीच में शतशः दल्ले;
भाग्यलेख अपनी क़िस्मत के
कैसे कहाँ पढ़े जाएँगे?

अरथी छोड़ चिता में बैठे
यहाँ मात्र है रहना-सहना,
करें कपाल-क्रिया बाँसों से
तब भी बड़ा कठिन है कहना।

अगर भूल से बचा रह गया,
चाव कहीं पर रचा रह गया,
कथा-कथन के ये पहाड़ दिन-
मुझसे नहीं चढ़े जायेंगे।

इन्हें भुगतते हुए चितरना,
भाषा में है कूड़ा करना,
अंतर वेला यदि होती तो,
द्वारों पर ही देता धरना।

जिसे निरंतर आया ढोता,
उसको पुनः भोगना होता-
साँसत में है प्राण, न मुझसे-
जलते चित्र मढ़े जाएँगे।

अलिफ सुलगते हुए दिनों के-
कैसे ग्राफ गढ़े जाएँगे।