मानसून का सघन शून्य,
आर्द्र अश्माएँ,
धरा की ओर
लुपलुपाता, आँख मिचकाता सूर्य,
धुँधकार में धँसता - शिमला।
मैं
खड़ा ऐकिक
नगर के नुक्कड़ से
देखता हूँ ताज़ा―
ताज़ा धुँधेरी―
उमड़ती घुमड़ती हुई
घाटी की दरारों में से,
परिवेश का आच्छादन करती,
प्रत्येक वस्तु को ढाँपती;
बचा रहता हूँ मैं
मेरी एकलता में
एकमात्र मैं
अस्तित्व में,
एक हस्ती
लुप्त होते नगर में।