आशंका की आँधी में
ढह गए गढ़, दुर्ग सब
काँपना था पत्ते की तरह
मन के सुनसान तट पर उग आए
इस बिषवृक्ष की छाया में तपना था
निर्जन नदी के भँवर में
जर्जर नाव लिए भटकना था
अपने ही नर्क में जीना था
अपने अँधेरे में डूबते चले जाना था
टूटी उम्मीदों का बोझ लिए
इधर-उधर फिरती हवा में भटकना था
व्यक्ति का एक नर्क
तो उसके पास होता ही है हरदम .