अब आईना ही घूरता है मुझे
और पार देखता है मेरे तो शून्य नजर आता है
शून्य में चलती है धूप की विराट नाव
पर अब वह चांदनी की उज्जवल नदी में नहीं बदलती
चांद की हंसिए सी धार अब रेतती है स्वप्न
और धवल चांदनी में शमशानों की राखपुती देह
अकडती चली जाती है
जहां खडखडाता है दुख पीपल के प्रेत सा
अडभंगी घजा लिए
आता है जाता है कि चीखती है आशा की प्रेतनी
सफेद जटा फैलाए हू हू हू हा हा हा आ आ आ
हतवाक दिशाए सिरा जाती हैं अंतत: सिरहाने मेरे ही
मेरे ही कंधों चढ धांगता है मुझे ही
समय का सर्वग्रासी कबंध
कि पुकार मेरे भीतर की तोडती है दम मेरे भीतर ही … ।