Last modified on 4 सितम्बर 2017, at 14:09

अवसाद / लवली गोस्वामी

व्यस्तताओं के अंतिम चिन्ह निगलता
चला आता है विहँसती रात का मायावी एकाकीपन
थकी हुई आस का अजगर उत्साह के हिरण की
सब हड्डियाँ निगलकर निराशा के श्मशानों में बिखेर देता है

लाल खून को लीलती धमनियों में
कलकल बहती है अवसाद की स्याह नदी
नीली होती देह पर स्मृतियों का विष चढ़ता है
पुतलियाँ अंधकार पीने के लिए फ़ैल जाती है

दुःखों के चीन्हें-अनचीन्हें प्रेत रात्रि के तीसरे प्रहर
सबसे ताक़तवर होकर ग्रस लेते हैं
मन की अंतिम परत तक का सुख

तीर सी बींधती नुकीली चन्द्रमा की किरणें
खिड़की से देह के रेशों की जड़ों में प्रवेश करती है
देह के रोम अपसगुनी ठूंठों के
चित्रलिखित जंगल की तरह जाग जाते हैं

लपलपाती तनाव की लहरें
आशा के सब पोत डूबो कर कुलाँचे भरती है
शैतान की नाभि जैसे गहरे पीड़ा के भंवर
आँखों की पुतलियों में निःशंक घूमते
सब सुन्दर दृश्य खा जाते हैं

टूटे नलके से मन के तल पर
बूंद -बूंद टपकती है नीरवता
बूंद के तल को स्पर्श हथौड़े सा लगता है
देह अवसादी चट्टान सी भरभरा कर ढह जाती है

धमनियाँ झुलसाती तेजाब का असर लिए
आँखों से देह के भीतर छाती तक बहती है
आत्मा में फफोले उगाती अन्तः सलिला लावे की नदी

किसी ने जैसे धरती के आदिम प्रेमी के सीने पर
खंजर घोंप दिया हो , बरसात में यों चुपचाप झरता है
अँधेरी सड़क पर आकाश का धवल रक्त

वीतरागी मन से विद्रोह करते
“उलगुलान” चिल्लाते आते हैं आदिवासी मोह
अनुभवों के राजकीय दुर्ग से टकराकर
लहूलुहान हो जाते हैं।