एक उजला दिन
उग आया तेज़ तूफ़ान और बरसात के बाद
शहद जैसी मीठी धूप
तलुओं पर चिपक गयी
मैं मुस्कुराता रहा
ख़ुद पर देर तक
अब ठहरने लगा हूँ
अंदर और बाहर
जब रोशनी अंदर हो
तो बाहर का अँधेरा डराता नहीं
मेरे छोटे कमरे का आयतन
मेरा दम नहीं घोटता
अब जोर से साँस भरता हूँ।
फोन की अनजान घण्टी
मेरे चेहरे का रंग नहीं बदलती
अब भीड़ में जोर की प्यास नहीं लगती
कंठ नहीं सूखता
अब अपनी ही चुप्पी चुभती नहीं
छाती का पहाड़ पिघलने लगा है
पुराने ख़तों को देर तक पढ़ता हूँ
अब पुरानी स्मृतियाँ से समयानुसार लौट आता हूँ।
बुरी स्मृतियों को कह देता हूँ-
मैं व्यस्त हूँ...
अब वे मेरे कमरे में जबरदस्ती नहीं घुसते।
अब लिखता हूँ...
मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ।
और ताज्जुब की बात है
ये शब्द अब खोते नहीं
गूंजते रहते हैं मेरे ही अंदर
एक मीठी धुन की तरह
और,
मेरी छाती में
बोगनबेलिया का सुगंध भर रहा होता है।