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अवांछित प्यार / विमल कुमार

तुम मत करना प्यार
पर मैं तुम्हें प्यार करके ही जाऊँगा
इस दुनिया से
इस अधेड़ उम्र में
एक पेड़ बनूँगा
और तुम्हें रास्ते में छाँह देकर जाऊँगा

जहाँ-जहाँ से तुम गुज़रोगी
प्यार करूँगा
बादल बनकर
तुम्हारे आँगन में ख़ूब बरसते हुए
फूल बनकर
करूँगा प्यार
और ख़ुशबू दे जाऊँगा तरह-तरह की
तुम्हारे बदन में
चन्द्रमा बनकर
शीतलता देकर जाऊँगा
मत करना प्यार
पर तुम्हारे सुख-दुख में
रहूँगा साथ
तुम्हारी अवांछित छाया की तरह

तुम्हें हो सकता है
यह सब नागवार भी गुज़रे
यह शख़्स अनोखा
क्यों चाहता है मुझे करना इस तरह बेइंतहा प्यार
जबकि मैं नहीं चाहती
पर तुम्हें मैं अपने साथ
बाँधने के लिए नहीं करूँगा प्यार
नहीं करूँगा कुछ पाने के लिए जो भौतिक हो

लहरों की तरह करूँगा प्यार
दौड़ते हुए तुम्हारी तरफ़ आऊँगा
तुम मत समझना
कि आज स्वाभिमान नहीं है मेरे पास
और ख़ुद को समर्पित किए जा रहा हूँ
बिना तुमसे पूछे दुत्कारे
तुम्हारे चरणों पर
भिगोते हुए तुम्हें अपने पानी से
कर रहा हूँ प्यार

करूँगा तुम्हें प्यार
बिना तुम्हें बताए
बिना लिखे कोई चिट्ठी
बिना किए कोई टेलीफोन
और बिना मिले भी
अगर तुमने मिलने से भी मना कर दिया तो
तुमने देखा है
किस तरह आकाश में सुदूर
एक तारा टिमटिमाता है ।
और वह धरती को करता है कितना प्यार ?

तुम मेरे प्यार को भले ही न समझ पाओ
पर मैं तुम्हें
मरने के बाद
राख बनकर भी करूँगा प्यार
जिसमें रसोई घर में
तुम माँज सको
अपने जूठे बर्तन

कम से कम
इसी बहाने
तुम समझोगी
राख का भी है कितना
महत्त्व हमारे जीवन में

अपने से तो प्यार हर कोई करता है
करता है अपने बाल-बच्चों
और पति तथा पत्नी से
मैं तो दूसरों से भी
प्यार करके जाऊँगा

एक दिन इस दुनिया से
तुम कहोगी खीझकर मेरी मृत्यु के बाद
कितना अवांछित है इस तरह का प्यार ?