इधर इमलियों और नागफ़नियों से उगी
कगारों के बीच दूर जाकर खो जाती
ग्राम-नदी की सूखी, सिलेटी पथरीली शैया :
उसमें घिर आते
सायाह्न के भयावने साये :
उधर सघन गुथी हरियाली वन-वीथी के पार
झाँकता आकाश का पारदर्शी मुखड़ा :
एक ही विपल में
पाया मैंने जीवन का दर्शन,
अविकल... सम्पूरन
रचनाकाल : 16 मई 1963, सीता-सरोवर