चुप थे सब
चुप हैं अब
जैसे कभी-कभी गर्मियों में
होती है हवा
अपने दुर्ग से निकलकर
बात कोई नहीं करता
जैसे सहमे हुए कबूतर
खिड़की में लटका
प्याली भर आकाश
देखते रहते
एकटक
दिन-दिन भर
अचानक उग आतीं
खिड़की की सलाख़ें
भीतर
खंडहर के स्तंभों की
परछाइयों की तरह
और तब उतरते हैं
भीतर के
सीढ़ियों रहित
शून्य में
धीरे-धीरे
पानी में गहरे
उतर रही हों जैसे
अंधी मछलियाँ
कब आया पानी
और लगी छत चूने
पता ही नहीं
कब आ दुबकता
भीतर के घोंसले में
अँधेरे का पँछी
जो देता गया अंडे
बढ़ता गया परिवार
इतना सब हो गया
और पत्ता तक न हिला
सब भीतर
चौक़ड़ी मारे बैठे रहे
अंधे भिखारी की मुद्रा में
कितना इकट्ठा किया
फिसलता रहा सब
और वो बैठे
चश्मे बदलते रहे
बदलते रहे
लिबास
पहले,लाल,फिर सफेद,फिर पीला
और अंत में गेरूआ
सहसा पीछे मुड़ देखा एक दिन
नदारद थे वहाँ से
हड़बड़ा कर देखा आगे
कुहासा ही कुहासा था
जब देखा नीचे
(जैसे हरा हुआ चोर फैंकता है
आखिरी कमंद)
तो गायब थे पैर
तब कहीं जाकर सोचा :
उम्र भर हिलाते रहे पेड़
न गिरा एक भी फल
और जब गिरा
तो वह भी गला हुआ