है वही रंगमंच कवि-कर्म
जहाँ पर प्रकृति-नटी सब काल
दिखाकर रंग परम रमणीय
लुटाती है रत्नों का थाल।
यही है वह अनुपम उद्यान,
जहाँ खिलते हैं भाव-प्रसून;
यही है वह महान रस-सोत,
जिसे अरसिक सकता है छू न।
यही है सहृदयता-सर्वस्व,
रसिकता-रजनी-अमल-मयंक;
लोक-प्रतिभा-सरि-सलिल-प्रवाह,
भावना-भव्य-भाल का अंक।
रुचिर रुचिकर रचना का मूल
यही है ललित कला का ओक;
यही है रस नभ-तारक-वृंद,
इसी से सज्जित है सुरलोक।
इसी सरसिज का कर रस पान
मत्त होता है मानस-भृंग;
इसी रवि की आभा कर लाभ
दमकता है गौरव-गिरि-शृंग।
किंतु कुछ मलिन मन-मुकुर-मधय
नहीं पड़ता उसका प्रतिबिम्ब;
हो गये रुचि विकार संचार,
आम्र समझा जाता है निंब।
कभी करता है विविध प्रपंच
प्रवंचक प्राचीनता विराग;
बनाता है रवि को रज-पुंज
कभी नूतनताओं का त्याग।
रुज-ग्रसित हो नाना-रस-लुब्धा
नहीं छूता व्यंजन का थाल;
नहीं करता मुक्ता का मान
मोह-वश बन मद-अंधा मराल।