तुमने मुझको क्या समझा था
एक फूल गुलदस्ते का-
जो आकर तेरा घर सजाए,
खुशबू कण-कण में बिखराए,
या समझा था
पड़ा हुआ
पत्थर कोई रस्ते का-
जिसे पथिक दे देकर ठोकर
चाहे इधर-उधर लुढ़काए,
फिर भी उस पर शिकन न आए
या फिर तुमने समझ लिया था
कि मैं माटी की हूँ इक मूरत
जिसे सजा दो तुम कोने में-
फर्क कभी कर पाया तुमने
क्या मेरे हँसने-रोने में-
क्या तुमने समझा कठपुतली?
जब जैसे चाहो नचा दो
इन सब में कुछ भी नहीं मैं
अगर हूँ तो इक बहुरंगी तितली
कुतर-कुतर मेरे पंख न काटो
मुझे भी अच्छी लगती बगिया
लहराती, बलखाती नदिया
उड़ने की मेरी भी इच्छा-
नभ छूने का मेरा भी मन
शीशे में कर बन्द मुझे
न लो मेरी कठिन परीक्षा-
न मैं बस खुशबू
न मैं बस सूरत
एक हृदय भी मेरा है-
जिसको अपने सुख की खातिर
तुमने जंजीरों में घेरा है-
जैसे-तैसे साँसें लेकर पल-पल,
क्षण-क्षण
जी रही हूँ-
आँसुओं को छुपाकर जग से
सँभल-सँभल कर पी रही हूँ-
है अन्त नहीं मेरी कथा का-
है अन्त नहीं मेरी व्यथा का-
फिर भी
यही आस पाले हूँ मन में
इक न इक दिन तो होगा सवेरा-
टूटेगा जंजीर का घेरा-
और मुझको पहचान मिलेगी,
फूल,
मूर्ति,
खुशबू से हटकर
यह दुनिया
मुझको भी इन्सान कहेगी।