फूल से
पंखुड़ी तो झरेगी ही
पर यह क्यों कहो
कि याद तो मरेगी ही?
फूल का बने रहना भी याद है
जिस में एक नयी दुनिया आबाद है :
पंखुड़ियों की, फूलों की, बीजों की।
यह एक दूसरी पहचान है चीज़ों की।
न सही फूल, या पंखुड़ी,
या यादें, या हम :
व्यक्ति की अस्ति की नियति तो
अपने को पूरा करेगी ही!
नयी दिल्ली, 29 जून, 1968