हम पानी के प्यासे थे, किसी खून के नहीं
अपमान की धारा के, किसी बूंद के नहीं
हमें नाली व नाले का पानी, पीना ही पड़ा
लेकिन आंख बंद करके, उसे सूंघ के नहीं
सूअर नहाते थे जहाँ, खूब लोट लोटकर
जमते घरों के मल, बह नालों में मिलकर
थूक की झागों में कचढ़े, मिलके बह रहे
कुण्ठित व्याकुल मन से, दम घुट के पी रहे
सवर्ण कुंओं से अछूत, पानी पी नहीं सकते
प्यास की तड़प से, ज़िन्दा रह नहीं सकते
तलाब तक उनकी नज़रें, भटक नहीं सकती
पानी पीते हैं जानवर, पर हम छू नहीं सकते
साहस अगर करता था कोई, पी लेने को पानी
सवर्ण लाठी से, अछूत का खून, बहता पानी
सम्मान से बहिष्कार, समाजवाद से तिरस्कार
जिस गली से गुज़रे दलित, मिलती रहे दुत्कार
कितनों के गले सूखे, आंख से खून बह गये
राहों में मर गये कितने, घर तक न जा सके
प्यासी माँ के पेट में बच्चे, कितने गोद मंे, तड़पते रहें