मैं तो सिकुड़ लाज के मारे
खुद गड़ गयी कि जड़ निष्प्राण!
फिर क्यों तुम बदनाम हुए प्रिय,
देकर शाप बना पाषाण!
मैंने कोई पुण्य न जाना,
मैंने कोई पाप न जाना।
माँगा कोईवर न किसी से,
जग-जीवन का शाप न जाना।
पाता कोई व्रत न कभी था,
कभी न देखी नगरी काशी!
कभी न तन गंगा में धोया,
कभी न की पूजा अविनाशी!
मेरे तो तुम ही जप-तप हो;
तुम्हीं पुजापा, तुम्हीं प्रसाद!
मेरे तोतुम ही मन्दिर हो,
मेरे तो तुम ही भगवान!
कैसे आज सूर्य को अपनी
किरणों का विश्वास उठ गया?
कैसे अडिग पथिक को अपने
चरणों से विश्वास उठ गया?
कैसे आज केतकी-वन को
सौरभ से विश्वास उठ गया?
कैसे आज हिमालय का
इस धरती से अधिवास उठ गया?
टूटे दर्पण-से जुट पाते
कभी उठे विश्वास नहीं;
नहीं जानती थी डँस लेंगे
मुझको मेरे ही वरदान!
मैं तो सिकुड़ लाज के मारे,
खुद गड़ गयी कि जड़ निष्प्राण!
फिर क्यों तुम बदनाम हुए प्रिय,
देकर शाप बना पाषाण!
मेरी बाँह छुड़ाकर खुद तुम
सुन कुक्कुट की बाँग चल दिये!
रहा बाँधता आँचल मेरा,
रहे रोकते स्नेहिल दीये!
औ’ कुछ पल में ही तुम लौटे,
सोचा, मेरे दिल की धड़कन
सुनकर घर की ओर स्वतः ही
मुड़े तुम्हारे विकल श्रीचरण!
फिर क्या? प्रेम-गर्विता मैं तो
उमड़ी अंग-अंग रसराती,
फिर तो बड़े वेग निर्झरिणी
सागर में खो गयी अजान!
मैं तो सिकुड़ लाज के मारे,
खुद गड़ गयी कि जड़ निष्प्राण!
फिर क्यों तुम बदनाम हुए प्रिय,
देकर शाप बना पाषाण!
प्रेम-पुलक में अमृत-कलश के
विष को मैं कब जान सकी!
छद्म वेश मेंआने वाला
शाप नहीं पहचान सकी!
पर मेरा क्या दोष? छली
जो गयी मूढ़ अनजाने में?
भला यज्ञ करते क्या सुख
मिल सकता हाथ जलाने में?
तुमको छोड़ समझ सकता
है विपदा मेरी कौन?
कौन सँभाल सकेगा मेरे
अन्तर का तूफान!
मैं तो सिकुड़ लाज के मारे,
खुद गड़ गयी कि जड़ निष्प्राण!
फिर क्यों तुम बदनाम हुए प्रिय,
देकर शाप बना पाषाण!
हे मुनिवर, हे नाथ, पाप
तन का या मन का वासी?
चर्मचक्षु से मर्मचक्षु क्या
अधिक न आत्म-प्रकाशी?
पूत प्रेम का रंग मिटा
करता क्या तन-घर्षण से?
क्या हो सकता हृदय एक
धोखे से पाणि-ग्रहण से?
मैं तो सिकुड़ लाज के मारे,
खुद गड़ गयी कि जड़ निष्प्राण!
फिर क्यों तुम बदनाम हुए प्रिय,
देकर शाप बना पाषाण!
(16.6.70)