आदमियों की वह मछेह, वह भीड़ ठसाठस,
उठती हुई गनगनाहट, आगे का रेला,
पीछे का दबाव, चारों ओर की कसाकस,
आदमियों के सिर ही सिर, ऐसा था मेला ।
सरसों छींटो भूमि तक न जाए वह ठेला-
ठेली थी, आँखें कुछ देख नहीं पाती थीं,
कान सुन नहीं पाते थे, मिट्टी का ढेला
ही मनुष्य था यदि साँसें बाहर जाती थीं
तो फिर अंदर फिर कर कभी नहीं आती थीं,
'हाय', 'मरा' 'देख कर' 'बचाओ' 'पैर तो गया'
'कहीं खड़ा हो पाता तो' 'चक्कर खाती थीं'
'रमिया-बुधिया उधर', 'महेसर कहाँ खो गया।'
दब पिच कर कितने ही जन दम तोड़ रहे थे,
माया, ममत, माल मता सब छोड़ रहे थे ।