कमरे में सजी हैं कुर्सियाँ, सोफा सेट
जिन पर न जाने कितने लोगों की उपस्थिति दर्ज है
आलमारी में दीप्त हो रही हैं पुस्तकें
जिनमें कितने-कितने देशों की
संवेदनाएँ और विचार संचित हैं
दीवारों पर
अनेक सम्मान-प्रतीक टँगे हैं उपलब्धियों के रूप में
कितने-कितने विशेष्ज्ञ पुरुषों के चित्र चमक रहे हैं
कितना कुछ तो है इस कमरे में
लेकिन यहाँ बन्द जीवन का सुख है
बाहर की ताज़ा हवाएँ
शीशों से टकरा कर लौट जाती हैं
और कमरा स्वयं सृजित कर लेता है
यंत्रों द्वारा अपने लिए हवा
यह मेरा सुख है कि
इस महानगर में मेरे मकान में आँगन भी है
जब कमरे में जी ऊबता है
तब आँगन में चला आता हूँ
आँगन में कुछ पेड़ हैं कुछ फूलों के पौधे
वे मुझे देखकर मुस्कराते हैं
जैसे कह रहे हों
स्वागत है तुम्हारा हमारे बीच
उन पर पंछी चहचहाते हैं
भौंरे गुनगुनाते हैं
गिलहरियाँ चिक चिक करती हुई
चढ़ने-उतरने का खेल खेलती रहती हैं
खुला आकाश असीम आभा बरसाता है
मुक्त हवाओं के स्पर्श से
तन-मन में स्पंदन के फूल खिल जाते हैं
मिट्टी जीवन का आदिम राग सुनाती है
ऋतु की अपनी महक फैली होती है
और उसकी खोई हुई पहचान मुझमें जाग जाती है
लगता है
मैं आँगन में निकल कर चला जा रहा हूँ-
खेतों में, बाग-बगीचों में, जंगलों में
तालाबों और नदियों के किनारे-किनारे
जहाँ ऋतुओं ने आकर
मुझे अपने-अपने गीत सुनाए थे
अपनी-अपनी महक लुटाई थी
और मेरी पहचान बनाई थी
आँगन में आता हूँ तो
धीरे-धीरे मैं वही पहचान बन जाता हूँ।
-1.7.2014