हो गया है
तेज़ कितना
आँधियों का स्वर
कब भला
होंगे मुखर
प्रतिरोध के अक्षर
घास बोये
जा रहे हैं
जंगलों की आस में
पर कमी आयी नहीं
अब तक अडिग
विश्वास में
मोम के पुतले
खड़े हैं
आँच से डरकर
चीख़ती आहें
दफ़न हैं
हर तरफ़ दीवार में
हैं प्रगति की सीढ़ियाँ
इस राख की
मीनार में
मल रहे हैं
ये अँधेरे
रात माथे पर
यह ज़रूरी है कि
यह प्रतिरोध
आपस में जुड़ें
हैं खड़ीं जो उँगलियाँ
वो आज
नीचे को मुड़ें
तब भुजाओं का
दिखेगा
ज़ोर कुछ बेहतर