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आँधी / कविता कानन / रंजना वर्मा

शांत सागर
मन्द हिलोरें लेती लहरें
लहरों पर मचलता
मन्द गति से
डोलता
धीरे धीरे बहता
खूबसूरत बजड़ा
बड़े मन से
सजाया है इसे
इसके मालिक ने ।
कितनी कामनाएँ
कितने स्वप्न
कितनी उम्मीदें
समेटे हुए
बहता जा रहा है
प्रसन्न मन
आनन्दित हैं यात्रीगण
पर यह क्या
अचानक ही
हवाएं तेज हुईं
आँधी चलने लगी
और कुछ ही देर में
बदल गयी
भयंकर तूफान में ।
सब कुछ पल भर में ही
टूट कर बिखर गया
नष्ट हो गया ।
कुछ ही क्षणों में
क्या से क्या हो गया
न बजड़ा रहा
न उम्मीदों से भरा आशियां
एक टूटे हुए
कष्ट खण्ड पर पड़ा
देखता रह गया
बजड़े का मालिक
अपने बिखरते हुए संसार को
यही तो है जीवन का सत्य ।
सजाते रहते हैं हम सपने
और क्रूर काल की आँधी
एक ही क्षण में
सब कुछ नष्ट कर देती है
रह जाते हैं हम
खाली हाथ
यूँ ही ।