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आँधी / विजय राही

यूँ तो बच्चों को आँधी अच्छी लगती है,
पर हमारे लिए आँधी जब भी आई
मुसीबतों का विशाल पहाड़ लेकर आई।

आँधी के अंदेशे मात्र से काँपने लग जाती थी माँ
मुँह-अँधेरे से ही टूटे छप्पर को ठीक करने लग जाती
और देती रहती साथ में आँधी को नौ-नौ गालियां
उसकी गालियों को कितना सुनती थी आँधी ,
यह तो हमको पता नही है।
पर वह आती थी अपने पूरे ज़ोर के साथ।
लिपट जाते हम सब भाई-बहिन छप्पर से
कोई पकड़ता थूणी, कोई बाता पकड़ता ।

कभी-कभी तो आँधी इतनी तेज होती
कि उठ जाते थे सब भाई-बहिन
ज़मीन से दो-दो अंगुल ऊपर।
माँ लूम जाती थी रस्सी पकडकर,
छप्पर से छितरती रहती घास-फूस।
फट जाता था पुराना तिरपाल
और साथ में माँ का ह्रदय भी।
बिखर जाती छप्पर की दीवार के चारों ओर
लगाई ख़जूर के पत्तों की बाड़।

आँधी के सामने माँ खड़ी रहती थी
सीना ताने, अपनी पूरी ताकतों के साथ।
पर हमको अब भी याद है उसकी रिरियाहट
भगवान से आँधी रोकने का उसका निवेदन
बालाजी- माताजी को बोला गया प्रसाद।

जब थम जाती आँधी देर रात
अपना पूरा ज़ोर जणाकर,
फिर चलती कई दिनों तक
बिखरे को समेटने की प्रक्रिया।

बीत गया बचपन, रीत गई यादे
गिर गया छप्पर,बन गया मक़ान
फिर गए दिन,फिर गए मौसम
कट गए साल,मिट गए ग़म
मग़र जब भी आती है आँधी
आज भी सिहर उठता है मेरा तन-मन।