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आँधी के हाथ जिए / राजेन्द्र गौतम

यह भी क्या
मुट्ठी भर
यादों के साथ जिए ।

इतनी चुप रातें
किस कोलाहल से कम हैं
सन्नाटों के फैले
सरहद तक ग़म हैं
ठहरे हुए समय में
आँधी के हाथ जिए ।

हारी-थकी हवाएँ
लौटी हैं पुकार कर
सागर ने प्रश्नों का
दिया नहीं उत्तर
सब सपने झुलस गए
कैसी बरसात जिए !